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लोकप्रिय कवापन्य
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ता यही पारणाम निकाला जा सकता है कि पैशाची बोली का जन्मप्रदेश विध्य वित है। दूसरी ओर, सर जार्ज प्रियरसन ने पिशाची बोलियों के एक वर्ग का प्रचार-क्षेत्र भारत का उत्तर-पश्चिमीय प्रान्त श्तलाया है। उसके मत ले इन बोलियों का सीधा सम्बन्ध पुरातन पैशाचो माया से है और इन दिनों ये काफिरिस्तान में चिताला. गिजगिल और स्वार के प्रदेशों में बोली जाती हैं। उत्तर-पश्चिम की इन पिशाच-बोलियों में '६' के स्थान पर 'त' और इसी प्रकार अन्य कोमल मजनों के स्थान पर भी उन्हीं-जैसे कठोर व्यञ्जन बोले जाने हैं। परन्तु यद्दी प्रवृत्ति विन्ध्यपर्वत की भाषाओं में भी पाई जाती है। लेकोट का विचार है कि शायद गणान्य ने पैशाची भाषा उत्तर-पश्चिम के किन्हीं यात्रियों से सीखी हो । किन्तु यह बिचार दिल को कुछ जगता नहौं । फिर, और भी कई कठिनाइयाँ है। पैशाची भाषा में केवल एक सकार-अनि का सदाव पाया जाना है, परन्तु उत्तरपश्चिम की पिशाच-छोलियों में अशोक के काल से लेकर भिन्न-भिन्न सकार-ध्वनियाँ विद्यमान चलो श्रा रही हैं। इसका रत्तीभर प्रमाण नहीं मिलता कि गुणात्य कभी भी उत्तर-पश्चिमीय भारत में रहा हो। इसके अतिरिक राजशेखर हमें बतलाता है कि पैशाची भाषा देश के एक बड़े भाग में, जिसमें विन्ध्याचल श्रेणी भी सम्मिलित हैं, व्यवहृत होती थी। प्रात: प्रकरण को समाल करते हुए यही कहना पड़ा है कि प्रमाणों का अधिक भार पैशाची के विन्ध्यवासिनी होने के पक्ष
(च) काल-यह निश्चय है कि बृहत्कथा ईसा की छटी शताब्दी से पहले ही लिखी गई थी, क्योंकि दण्डी ने अपने काव्यादर्श में इसका हल्लेख करते हुए इसे भूतभाषा में लिखी हुई कहा है। बाद में सुबन्धु और बाण ने भी अपने प्रन्धों में इसका नाम लिया है । सम्भव है मृच्छकटिक के कार्याने बृहत्कथा देखी हो और वसन्तसेना का चरित्र मदनमन्जुका के चरित्र पर ही चित्रित किया हो; परन्तु दुर्भाग्य से