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अवदानशतक
२२६ विक्रमादित्य ने अपना सिंहासन इन्द्र से प्राप्त किया था। उसके स्वर्गवासी हो जाने पर यह सिंहासन भूमि में गाड़ दिया गया। बादमें इसका पता लगाने वाला धाराधिपति भोज (११ वीं श० में) हुआ जब वह
पर बैठने लगा तब पुतलियों ने ये कहानियों उसे सुनाई । इस ग्रन्थ के उपदस्थमान अनेक संस्करण इसकी लोकप्रियता के परिचायक है । ( इनमें से कुछ संस्करण कथा-सूचक पद्यों में मिश्रित गद्य में हैं, कुछ प में हैं, जिनमें बीच-बीचमें प्रोपदेशिक पथ भी हैं, और कुछ केवल पथमें
)। इसका अनुवाद आधुनिक भाषात्रों में भी हो गया है। विक्रमादित्य के 'विक्रम कर्म' संस्कृत कवियों को अपनी रचनाओं के प्रतिपाद्यार्थ के दिए कमी बढे प्रिय थे । अतः इस ग्रन्थ को रोचकता में कोई न्यूनता नहीं भाई | भाषा सरल है । ग्रन्थके रचयिता के नाम और अन्य के निर्माण के काल का ठीक ठीक कुछ पता नहीं । बहुत कुछ निश्वय के साथ हम केवल यही कह सकते हैं कि यह वेताळपंचविंशतिका के बाद की रचना है । (८६, बौद्ध साहित्य |
अब तक हम लोकप्रिय कथाओं का शुद्ध ब्राह्मणिक साहित्य का ही वर्णन करते आए है। किन्तु लौकिक साहित्य की इस शाखा में बौद्ध और जैन after बड़े सम्पन्न है । इस तथा अगले खण्ड में हम इन्हीं साहित्यों पर विचार करेंगे । बौद्ध कहानियों का मुख्य उद्देश्य अपने धर्म का प्रचार करना है । उनमें मनुष्य के कर्मों के फल की व्याख्यां है । खुद्धि की भक्ति से परलोक में आनन्द मिलता है। इससे पराङ्मुख रहने चाको नरक की यातना भोगनी पडती है । यहाँ उल्लेख के योग्य प्राचीनतम ग्रन्थ अवदान हैं। इनमें वीर्य-कर्मों या गौरवशालिनी उपा श्रनार्थी (Achievments) का वर्णन है ।
(क) अवदानशतक
प्राप्य अवदान सन्दर्भों में अवदानशतक सबसे पुराना सन्दर्भ समझा जाता है। ईसा की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में ही इसका अनुवाद दीदी