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संस्कृत साहित्य का इतिहास
उतना
भाषा में हो चुका था । अतः इसका निर्माण-काल ईसाकी प्रथम या द्विती शताब्दी माना जा सकता है। इससे पुराना यह हो नहीं सकता; कारण, इसमे 'दीनार' शब्द पाया जाता है । इलका मुख्य श्राधार बौद्धों के सर्वा स्विचचादितका विनयपिटक है । ग्रन्थ दख दर्शको विभक्त है। इसको कहानियों का | जतना महत्त्व उपदिश्यमान शिक्षाओं के कारण है, साहित्यिक गुणोंके कारण नहीं । अन्थमें कुछ नय है और कुछ पथ । पद्यभाग सरळ काव्य के ढंग का है। कुछ उपाख्यान ऐतिहासिक भी है। उदाहरण के लिए बिम्बसार की रानी श्रीमती को ले सकते हैं। कहानी बताती है कि अजातशत्रु ने इसे बुद्ध के भस्मादि अवशेष की श्रद्धाजति भेंट करने से मना किया। श्राज्ञा भंग के अपराध पर राजा ने इसका बध करवा दिया तो यह सीधी स्वर्ग को चली गई ।
(ग) दिव्यावदान - यह उपाख्यानों का संग्रह ग्रन्थ है । इन उपाख्यानों का मुख्याधार सर्वास्तित्ववादियों का विनयपिटक ही है । इसके एक भाग में महायान सम्प्रदाय के ओर दूसरे में होनमान के सिद्धान्तों का व्याख्यान है। इसके संग्रहकर्ता को अश्वघोष के बुद्धfra और सौन्दरानन्द का परिचय अवश्य था । इसकी साहित्यिक उपार्जनाएं (Achievements) उच्च श्रेणा की नहीं है। नन्द के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए अश्वघोष कहता है--'अतीत्य मर्त्यान् अनुपेत्य देवान्' (सौन्द० ४ ) इसी बात को भी करके यह गुप्त के पुत्र के सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ यूँ कहता है-'अतिक्रान्तो मानुषवर्णम् श्रसम्प्राप्तश्च दिव्यवर्णम्' * ।
दिव्यावदान में शैली की एकता का अभाव है। शायद इसका यह कारण हो कि इसके उपजोष्य ग्रन्थ भिन्न भिन्न है। कभी कभी
१ मनुष्यों से ऊपर उठाकर, देवताओं तक न पहुंच कर । २ मनुके रंग से बाजी ले गया था, देवताओं के रंग तक पहुंच नहीं
पाया था ।