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लोकप्रिय कथाग्रन्थ
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नेपाल के साथ सम्बन्ध जोड़ने में कोई हेतु दिखाई नहीं देता। इसका ईसा की श्रावों या नौवीं शताब्दी माना जाता है । यावशिष्टखरित प्रति में २८ सर्ग और ४१३६ पथ हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ने किसी न किसी रूप में असही बृहत्कथा की पदा था । पाठक उदयन की कथा से परिचित है, यह कल्पना करके वह एक एक करके नरवाहनदास की प्रेम-कथाश्रों को कहना प्रारम्भ कर देता है। काश्मीरी संस्करणों के साथ तुलना करने से प्रतीत होता है कि विवरण में महान भेद है। दोनों देशों के संस्करणों में भेद केवल कथा के क्रम का ही नही, कथा के अन्तर आमा के स्वरूप का भी है। इसके अनिरिक्त काश्मीरी संस्करणों में प्रक्षेप भी पर्याप्त है । उदाहरण के बिए पंचतन्त्र के एक संस्करण की कुछ कथाएं और समग्र वेताळपंचविशतिका को लिया जा सकता है । प्रारम्भ में यही समझा जाता था कि काश्मीरी संस्करणों का आधार अधिकतया असली बृहत्कथा ही है, किन्तु बुद्धस्वामी के ग्रन्थ की उपलब्धि ने इस विचार को बिकुल बदल दिया है । श्रीमों संस्करणों के समान प्रकरणों की तुलना करने से जान पड़ता है कि शायद क्षेमेन्द्र और सोमदेव को दस्वामी के ग्रन्थ का पता था और उन्होंने उसका संक्षेप कर दिया है । कम से कम यह कहना तो बिलकुल सच है कि काश्मीरी संस्करण के कई उपा स्थान अप्रासङ्गिक प्रतीत होते हैं और श्नोक्समद को पढ़े विना इसका अभिप्राय समझ में नहीं आता है।
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काश्मीरी संस्करणों में आए प्रक्षिप्तांशों के विषय में दो समाधान होते हैं - या तो बृहत्कथा की वह प्रति, जो काश्मीर में पहुँची, पहले ही उपबृहित हो चुकी थी, और उसमें पंचतन्त्र का एक संस्करण एवं समग्र वेताळपंचविंशतिका प्रविष्ट थी; या संक्षेप-कारकों ने अपने कर्तव्य को ठीक ठीक नहीं अनुभव किया और अपने क्षेत्र की सीमाओं के अन्दर ही अन्दर रहने की सावधानता नहीं वरती ।