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संस्कृत साहित्य का इतिहास
'लड्डुओं से' | भूल मालूम होने पर राजा को खेड हुआ और उसने संस्कृत सीखने की इच्छा प्रकट की । गुणाढ्य ने कहा- मैं आपको छः वर्ष में संस्कृत पढ़ा सकता हूँ । इस पर हँसता हुआ ( कातन्त्र व्याकरण का रचयिता ) शर्ववर्मा बोला- मैं तो छः महीने में ही पढा सकता हूँ। उसकी प्रतिज्ञा को असाध्य समझते हुए गुणाढ्य कहा यदि तम ऐसा कर दिखाओ, तो में संस्कृत, प्राकृत या प्रचलित अन्य कोई भी भाषा व्यवहार में नहीं जाऊँगा । शर्ववर्मा ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर दिखाई, तो गुणाढ्य विन्ध्य पर्वत के अन्दर चला गया और वहाँ उसने पिशाचों (भूतों) को भाषा में इस बृहत्काय अन्थ का लिखना प्रार कर दिया । गुणाढ्य के शिष्य सात तास रखोकों के इस पोधे को नृप सातवाहन के पास ले गए, किन्तु उसने श्रवहेलना के साथ इसे अस्वीकृत कर दिया । गुणाढ्य बड़ा विषण्ण हुना । उसने अपने चारों ओर के पशुओं और पक्षियों को सुनाते हुए ग्रन्थ को ऊँचे स्वर में पड़ना प्रारम्भ किया और पठित भाग को जज्ञाता बजा गया। तब ग्रन्थ की कीर्ति राजा तक पहुँची और उसने उसका सात भाग (अर्धा एक लाख पद्य-समूह ) बच्चा लिया। यही भाग बृहत्कथा है ।
नेपाली संस्करण के अनुसार गुणाढ्य का जन्म मथुरा में हुआ था; और वह उज्जैन के नृपति मदन का श्राश्रित था । अन्य विवरणों में भी कुछ कुछ भेद है । उक्त दोनों देशों के संस्करणों के गम्भीर अध्ययन से नेपाल की अपेक्षा काश्मीरी की बात अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है । कदाचित् नेपाली संस्करण के रचियता का अभिप्राय गुणान्य को नेपाल के समीपवर्ती देश का निवासी सिद्ध करना हो ।
(ख) साहित्य में उल्लेख - गुणाढ्य की बृहत्कथा का बहुत ही पुराना उल्लेख दण्डी के काव्यादर्श में मिलता है । अपनी वासवदा में सुबन्धु ने भी गुणाढ्य का नाम लिया है। बारा भी हर्षचरित्र और कादम्बरी दोनों की भूमिकाओं में गाय की कीर्ति का स्मरण करता है । बाद के साहित्य में तो उल्लेखों की भरमार है। बृहत्कथा का