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संस्कृत साहित्य का इतिहास
शैक्षो-सुबन्धु का जदय ऐसा प्रध प्रस्तुत करना है जिसके प्रत्येक वर्ग में श्लेष हो।' कवि के साफल्य की प्रशंसा करनी पकृती है
और कहना पड़ता है कि कवि की गोंकि यथार्थ है। किन्तु श्राधुनिक तुला पर सोलने से अन्य निर्दोष सिद्ध नहीं होता। कथावस्तु के निर्माण में शिथिलता है और समस्कारपूर्ण, चकाचौंध पैदा करने वाला वर्णन ही सर्व प्रधान पदार्थ समझ लिया गया है । नायिका का सौन्दर्य, नायक की वीरता, वसन्त वम-पर्वत का बहन बड़े मनोरमरूप से हुआ है । कथा की रोचकता को शैली की कृत्रिमता ने लगभग दबा लिया है।
और यह शैली पाठक को बहुधा अरुचिकर एवं व्यामोहजनक प्रतीत होने लगती है। रीति पूर्ण गौडी है, इसीलिए इसमें बोमाली बनावट के लम्बे-लम्ब समास और भारी भरकम शब्द हैं, अनुप्रास तथा अन्य शब्दालङ्कारों की भरमार है। कवि को अर्थ की अपेक्षा शब्द से पाठक पर प्रभाव डालना अभिप्रेत प्रतीत होता है। श्लेष के बाद अधिक संख्या में पाया जाने वाला अलङ्कार विरोधाभास है, जिसमें अर्थ का स्व-विरोध मासिस होता है किन्तु वस्तुतः वह (अर्थ) स्वाविरोधवान् और अधिक उर्जस्थित् होता है। उदाहरण के लिए, नृप चिन्तामणि का वर्णन करते हुए कहा गया है.--"विद्याधरोऽपि सुमनाः, धृतराष्ट्रोऽपि गुणप्रियः, समानुगतोऽपि सुधर्माश्रितः" ।मालादीपक का एक उदाहरण
१ भूमिका के तेरहवें पद्य में इसने अपने आपको "प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रबन्धविन्यास वैदग्ध्यानिधिः" कहा है। २ पहला अर्थ- यद्यपि वह विद्याधर (निम्न श्रेणी का देव) तथापि वह सुमना (यथार्थ श्रेणी का देव था), यद्यपि वह धृतराष्ट्र था तथापि भीम का मित्र था, यद्यपि वह पृथिवी पर उतर आया था, तथापि वह देवसभा में आश्रय (निवास) रखता था । दूसराश्रर्थ-वह विद्वान होने पर भी उत्तम मन वाला, राष्ट्र का धर्ती होने पर भी गुणग्राही, पैशाली होने पर भी उत्तम शासन का श्राश्रय लेने वाला था।