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गद्य-काव्य और चम्पू १६ खाण और सुबन्धु से मिलाकर देखें वो दण्डी न तो उतना कठिन है
और न उतना कृत्रिमता से पूर्ण । भारतीय प्रायोवाद (Tradition) के अनुसार दण्डो पदलालित्य के लिए प्रसिद्ध है। इस पदनानिस्य का अभिप्राय है शब्दों के सुन्दर चुनाव पर आश्रित विच्छित्ति-शातिनी और परिष्कृत शैली जिसमें प्राकर्षण और प्रभाव दोनों हैं। इसके अतिरिक्त दण्डी कथा-सून को नहीं भूलता और सुबन्धु तथा दामा के समान आयास-मब वर्णनों में अटकता है। ये बात इसका काद २००ई० के आस-पास सूचित करती है, इसी काल का समर्थन दशकुमार चरित में पाई जाने वाली भौगोलिक परिस्थितियों से भी है।
श्राम्यन्नरिक साक्ष्य के धार पर सिद्ध होता है कि दण्डी महाराज भोज के अनन्त मादी नृप के शासन काल में विद्यमान था, इस विचार के साथ इसके छली शताब्दी में होने की बारा बिलकुल ठीक बैठ जाती है। कर्नल टाड ने किसी जैन इतिहास-व्याकरणोभयान्वित सूचीपत्र के आधार पर भोज नाम के तीन गजानों का उल्लेख किया है, जो मालवे में क्रमशः २७५, ६६१, और १७४१ ई० में शासन करते थे। प्रत: बहुत कुछ निश्चय के साथ इसी परिणाम पर पहुँच सकते है कि दण्डी ईसा की छठी शताब्दी के अन्य के पास-पास जीवित था। १ उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थ- गौरवम् ।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति यो गुणाः || २ देखिए 'रघुवंश और दशकुमारचरित की भौगोलिक बातें, (इंगलिश) कोलिन्स (१९०७), पृष्ठ ४६ । ३ दक्खन में विजिका नाम के एक कवि ने दण्डी का नाम लेते हुए कहा है-"वृथैव दण्डिना प्रोक्त सर्वशुक्ला सरस्वती" यदि यह विजिका पुलकेशी द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र चन्द्रादिस्य की रानी विजयभवारिका ही है तो वह ६६० ई० के आसपास जीवित थी। इससे दण्डी का ६०० ई. के समीप विद्यमान होना सिद्ध हो जाएगा।