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अध्याय काव्य-
निर्माता (३७) वत्समट्टि (७३-४७३ ई.)--यह कोई बड़ा प्रसिद्ध कति नहीं है। इसने वि० सम्वत् १२६ में मन्दसोर में स्थित सूर्य-मन्दिर की प्रशस्ति लिली थी। इसमें गौडी हीति में लिखे हुए कुल ४४ पत्र हैं। इस प्रकार इसमें लम्बे जम्ने समास है, कभी-कभी सारी की सारी पंक्ति में एक ही समास चला गया है। कवि ने पद-पद में यह दिखलाने का प्रयत्न किया है कि यह काव्य के नियमों को भलो भाँति जानता है। इसने इस प्रशस्ति में दशपुर नगर का और वसन्त तथा शाद का वर्णन दिया है। कुल छन्दों की संख्या बारह है और सबसे अधिक प्रयुक्त वसन्ततिलका है। प्रायः एक ही बात तीन पद्यों में जाकर समाप्त हुई है किन्तु काव्य की श्रेष्ठ पद्धति में कोई अन्तर नहीं पड़ा। कभी-कभी इसकी रचना में अर्थ की प्रतिध्वनि पाई जाती है; उदाहरण के लिए, वें श्लोक के पहले तीन चरणों में, जिनमें राजा के सद्गुणों का वर्णन है, मृदु और मधुर ध्वनि से युक्त शब्द हैं,परन्तु चौथे चरण में,जिसमें उसके भीषण वीर्य का वर्णन है, कठोर-श्रुतियुक्त शब्द हैं [द्विदृप्तपक्षक्षपणकदक्षः] 1 9वें और १२वें पद्य में इसने कालिदास के मेघदूत और ऋतुसंहार का अनुकरण किया है।
(३८) सेतुबन्ध----यह कान्य महाराष्ट्री में है। कई विद्वानों की धारणा है कि इसे कवि ने कश्मीर के राजा प्रवरसेन द्वारा वितस्ता (जेहलम) पर बनवाए हुए पुल की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए