________________
१५२
संस्कृत साहित्य का इतिहास इसमें लम्बे लम्बे समास हैं जिसे प्रकट होता है कि कृत्रिम शैली के विकास में प्राकृत अनिता किस प्रकार संस्कृत कविता के साथ साथ चलती रही । वाक्पति भवभूति का ऋणी है ।
(४१) कविराज कृन वाघापारडवीय ( १२ वीं शताब्दी ).. इस कवि को सूर या परिइत भो कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इसका लेखक कादम्ब कामदेव (अगभग ११६० ई.) के आश्रम में रहता था। इस का श्लेष के बल से रामायया और महाभारत की दो भिन्न भिन्न कथाएं एक साथ चलती है। कवि ले यह एक ऐला कठिन काम करके दिखाया है जो संस्कृत को छोड़ जगत की किसी अन्य भाषा में देखने को नहीं मिलता, पाठक के मनोविनोदार्थ एक उदाहरण दिया जाता है
नृपेण कन्या जनकेन विस्मिताम् , अयोनिज लम्मयितु स्वर बरे।। द्विजप्रकर्षण स धर्मनन्दन. सहानुजस्ता भुवमप्यनीयतय' ॥
कवि और देकर कहता है कि वक्रोक्ति के प्रयोग में सुबन्धु और बाण को छोडकर उसके जोड़ का दूसरा कोई नहीं है ।
(४२) हरवत स्मृरिकन राधव नैषधीय-इसका रचना काल पत्ता नहीं है। इसमें भी श्लेष द्वारा राम और नल की कथा का एक साथ वर्णन है।
(४३) चिदम्बर कुन यादवीय राघवपारावीय - यह भी जोक
१ द्विजोत्तम ( विश्वामित्र) महागज जनक द्वारा दी जाने वाली अयोनिजा कन्या को प्राप्त करने के लिये छोटे भाई सहित इस धर्मनन्दन ( राम ) को स्वयवर भूमि में लाए ।
द्विजोत्तम (व्यास ) पिता द्वारा दी जाने वाली अयोनिजा कन्या को प्राप्त कराने के लिए छोटे भाइयो सहित उस धर्मपुत्र (युधिष्ठिर ) को स्वयबर ममि में लाए।