________________
काव्य-निर्माना प्रिय नहीं है। इसमें श्लेष द्वारा रामायण, महाभारत और भागवत की कथा का एक साथ वर्णन है ।।
(४४) इलायुधकृत कविरहस्य-साहित्य की दृष्टि से यह महत्वशाली नहीं है। इसकी रचना १० वीं शताब्दी में क्रियाओं की रूपावली के नियम समझाने के लिए की गई थी। प्रसङ्ग से यह राष्ट्रकूटवंशीय भूप कृष्णा (१४५-५६ ई० ) को प्रशस्ति का भी काम देता है।
(४५) मेएठ(जो भतृ मेरठ और हस्तिपक के नाम से भी प्रख्यात है)। नप मातगुप्त ने इससे हयग्रीवत्र की बडी प्रशंसा की है। बाल्मीकि मेण्ड, भवभूति और राजशेखर इन प्राध्यास्मिक गुरुश्री की श्रेणी में मेहत को दूसरे स्थान पर पारद होने का सौभाग्य प्राप्त है । मल ने इसे सुबन्धु,भारवि और बाण की कक्षा में बैठाया है। सुभाषित भाण्डागारों में इसके नाम से उद्धृत कई सुन्दह पथ मिलते हैं। यह छठी शताब्दी के अन्तिम भाग में हुआ होगा।
(४६) सातगुप-कल्हण के अनुसार यह काश्मीराधिपति प्रवरसेन का पूर्वगामी था। कोई कोई इसे और कालिदास को एक ही व्यक्ति मानते हैं किन्तु यह बात मानने योग्य नहीं जंचती। इसके काल का पता नहीं। कहा जाता है कि इसने भरत के नाट्यशास्त्र पर टीका लिस्ली थी। अब इस टीका के उदाहरण मात्र मिलते हैं।
(४७) भौमक का रावणार्जुनीय (ई० की ७ वीं शताब्दी के भासपास-~-इसमें २७ सर्ग है और राबण तथा कार्तवीर्य अर्जुन के कलह की कथा है। कवि का मुख्य उद्देश्य व्याकरण के नियमों का व्याख्यान करना है।
(४८) शिवस्वामी का कपफनाभ्युदय (६ बी शनान्दी)-- यह एक रोचक बौद्ध काग्य है किन्तु लोकप्रिय नहीं है। इसका रचयिता शिवस्वामी बौद्ध था, जिसने इसे काश्मीर-पति अवन्तिवर्मा के आश्रय में रहकर है वीं शताब्दी के उत्तराद्ध में लिखा था। इसकी कथा अवदानशतक में पाई हुई एक कथा पर आश्रित है और इसमें ! चिय के