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जयदेव-गीत गोविन्द (अण्डों) में विभक है। प्रबन्धों का उपविभाग पदों या गीतों में किया गया है। प्रत्येक पद या गीत में श्राउ पद्य है। गीतों के चक्का कृष्ण. राधा या राधा की सखी हैं । अत्यन्त नैराश्य और निरवधि वियोग को छोड़कर बचे हुए भारतीय-प्रेम के अभिलाष, ईा, प्रत्याशा, नैराश्य, कोप, पुनर्मिलन और कलबत्ता इत्यादि सारे रूपों का बड़ी योग्यता के लाध वर्णन किया गया है। वर्णन इतना बढिया है कि ऐसा मालूम होता है मानो कवि काम-शास्त्र को कविता के रूप में परिणत कर रहा है। मानवीय रागांश के चित्रण में प्रकृति को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, तो हमें इस काव्य में भूतरान, ज्योत्स्ना और सुरभि समीर का कण न देखने को मिलता है। और तो और पक्षी तक प्रेम देव की सर्वशक्तिमत्ता का महिमा गाते नज़र पाते हैं। रूपकातिशयोक्ति या अप्रस्तुत प्रशंसा ( Allegory)।
कुछ विद्वानों ने इस सारे काम को अप्रस्तुतप्रशंसा (Allegory) मानकर बाध्य अर्थ में छुपे व्यग्या को व्यक्त करने का प्रयत्न किया है। उनके मत से कृष्ण मनुष्याला के प्रतिनिधि हैं, गोपियों की कोड़ा अनेक प्रकार का वह प्रपञ्च है जिसमें मनुष्यारमा अज्ञानावस्था में फंसा रहता है, और राधा ब्रह्मानन्द है। कृष्ण ही कवि का उपास्य देव था, इस बात से इनकार नहीं हो सकता ।
शैली-~-जयदेव वैदर्भी रीति का अनुगामी है। उसने कभी-कभी दीर्घ समासों का भी प्रयोग किया अवश्य है किन्तु उसकी रचना में दुर्बोधता का या क्लिष्टान्वयता का दोष नहीं पाया है। सच तो यह है कि ये गीत सर्वसाधारण के सामने विशेष-विशेष उत्सवों में गाने के लिए लिखे गए थे [अत. उनको सुबोध रखना आवश्यक था] । कवि की प्रतिमा ने उसे साहित्य में एक बिल्कुल नई चीज़ पैदा करने के योग्य बना दिया। इन गीतों में असाधारण प्रकृत्रिमता और अनुपम माधुर्य है। सौन्दर्य में, सङ्गीतमय वचनोपन्यास में और रचना के खौष्ठव में