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इसका राजदरानली
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नावानि
तिम
श्रम नान्यत्र विश्वासः पार्श्वतीजीवितेश्वरात् ॥ वांगे तुङ्गभद्रायास्तदेष शिवचितया । बान्छाम्यहं निकट देहविनाम् ॥
as जम्बे समासों का प्रयोग नहीं करता और न अनुप्रास तथा रखोक की ही भरमार करता है। इसका वचन-विन्यास साधारणतया
है ।
-कहीं इसकी रचना में कृत्रिमता श्राजाने के कारण अर्थ-मान्य हो जाता है; किंतु प्रायः इसकी रचना विशदता और प्रसाद का दर्स है। इसने इंद्रवज्रा (छः सर्गों में ) और वंशस्थ ( तीन सों में) वृत्त का प्रयोग सबसे अधिक किया है
(७४) कल्हण की राजतरंगिणी ( ११४६-५० ई० ) ।
इसमें सन्देह नहीं कि कल्हार संस्कृत साहित्य में सब से बड़ा इतिहासकार है । सौभाग्य से हमें इसकी अपनी लेखनी से इसके जोवन के सम्बन्ध में बहुत मी बातें मालूम है । इसका जन्म काश्मीर में ११०० ई० के आस-पास हुआ था। इसका पिता चम्पक काश्मीराधिपति महाराजा हर्ष (१०-११०१) का सच्ची भक्ति से भरा हुआ सेवक था । षड्यंत्र द्वारा महाराजा का वध हो जाने पर कल्क्ष्य के परिवार को राजदरबार का थाश्रम छोड़ना पड़ा था। यह घटना उस निष्पक्ष तथा सम मैं जानता हूँ कि यह अभागा जीवन हाथी के कान के किनारे के तुल्य चञ्चल है। पार्वती के जीवन धन (शिव) को छोड़ कर किसी अन्य में मेरी आस्था नहीं है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि शरीरधारण के इस सॉग को शिव का ध्यान करते हुए तुङ्गभद्रा नदी की गोदी में समाप्त कर दूँ ।
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र मंडल ने इसे कल्याण का अधिक सुन्दर नाम देकर इसका नामोल्लेख किया है ।