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सम्कृत-साहित्य का इतिहास इसकी शैली की उपसा नहीं लिखती है। कभी पदों की देगी धारा द्वारा और कमी चातुर्य के साथ रचित दोधसमासों की लयपूर्ण गति द्वारा अपने पाठक या श्रोता पर यथेच्छ प्रभाव डालने की इसमें अद्भुत योग्यता है। यह नाना छन्दों के प्रयोग में ही कृतहस्त नहीं है किन्तु अहवरण के मध्य और अन्त दोनों तक में एक-सी तुक लाने में भी अद्वितीय है। उदाहरण देखिए:--
हरिरभिसरति वइति मधुपवने,
किमपरमधिक सुखं ससि भवने । इस तुकान्त रचना को देकर किसी किसी ने कह डाला है कि शायद गीतगोविन्द का निर्माण अपभ्रंश के किसी नमूने के अाधार पर हुश्रा होगा परन्तु यह अनुमान डोक नहीं है क्योंकि ऐसी रचना का
आधार अन्त्यानुमान है जो संस्कृत में जयदेव के काल से बहुत पहले हे प्रसिद्ध चला जा रहा है । तात्पर्य यह है कि जय देव को शैली की जितनी प्रशंसा की जाए थोड़ी हैं। इसने मानवीय भागात्मक भाव के साथ प्रकति-सौन्दर्य का सम्मिश्रण तो बड़ी योग्यता से किया ही है, भाषानुरूप ध्वनि का भी इस दीति से प्रयोग किया है कि इसकी कृत्ति का अनुवाद हो हो नहीं सकता है। इस तथ्य को विशद करने के लिए एक उदाहरण नीचे दिया जाता है। राधा कहती है (सर्ग =)--
कथितसमयेऽपि धरिरहह न ययौ वनम्, भम विफलमिदममलरूपमपि यौवनम् । यामि हे कमिह शरणं खोजनवचनवश्चिता, मम मरणमेव वरमिति विसथ केतना ॥
किमिति विषहामि विरहानलमवेतमा ।। यामि है.' ' सीसरे सर्ग में नदी तट के कुझगृह में बैठे २ मारव कहते हैं
मामियं शालिता विलोक्य वृतं वधूमिश्चयन,