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भत हरि
१६५ से चने मूते पर कई मोटे खाए थे। इसी साय पर प्रो. मैक्समूलर (Max Mulher)ने विचार प्रकट किया है कि कदाचित् यही भतृहरि वह तीनों शतकां का कर्ता हो । चाहे उक्त प्रोफैसर साहब के अनुमान में कुछ सत्यांश हो तथापि यह निश्चित रूप में ग्रहण नहीं हो सका, क्यों कि इस शतकों का रचयिता कोई बौद्ध नहीं, प्रत्युत वेदान्तसम्प्रदाय का एक श्रद्धालु शिवोपासक है। बहुत सम्भव है कि इरिसङ्ग ने इन शतकों के विषय में कुछ न सुना हो या जान-बूझकर इनकी उपेक्षा कर दी हो।
शैली मतृहरि का प्रत्येक श्लोक दाबण्यमयी एकतन्वी कविता है और इतनी सामग्री से पूर्ण है कि उसने ईजिश का एक चतुर्दशपदो पद्य (Sonnet) चन्न सकता है । ऐसा अद्भुत कार्य कर के दिखलाना कुछ असम्भव नहीं है, क्योंकि संस्कृत भाषा में गागर में सागर भरने की असाधारण योग्यता है और भतृहरि निस्सन्दव इस विषय में बड़ा ही निपुण है। उसने नीतिशतक में बड़ी सुन्दर एवं शिक्षाप्रद कविता है। देखिए महापुरुष का लक्षण बताते हुए क्या लिखा है :--
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा
सदसि वालपटुता युधि विक्रम । यशसि चाभिरुचियसमं श्रतो,
प्रकृतिसिमिदं हि महात्मनाम् ॥ वैराग्य शतक में बिल्कुल ही कुछ और कहा है :
प्राकान्तं मरण न जन्म जरसा चास्युत्तमं यौवनं, सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गाना-विभ्रम ।
बौकर्मसरिभिगुणा वनभुवो व्याजेनुपा दुर्जन, १ विपत्ति में धैर्य, सम्पत्ति मे क्षमा, सभा में वाक्चातुर्य, युद्ध में पराक्रम, यश के लिये अभिलाशा और श्रुति के अध्ययनादि का व्यसनये बातें महापुरुषों में स्वाभाविक होती हैं।