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भट्टि
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भाग में (१४--२२) 'कालों' और 'कारों' (tenses & mocds ) के प्रयोगों का निरूपण है ।
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शतो---मट्टि की शैक्षी प्रांजल और सरल है, परन्तु इसमें श्रीज और प्रभा का अभाव है। इसकी रचना में न कालिदास की-सी विशिष्ट उपमाएँ और न भारवि की-सी वचनोपन्यास शक्ति है । इसकी शैबी श्राश्वर्य जनक रूप से दो समासों और विचारों की जटिलता से मिल्कुल युक्त है। इसकी शैली में दूसरों की अपेक्षा जो अधिक प्रसादपूर्णता है उसका कारण इसका छोटे-छोटे छन्दों पर अनुराग है। इसके कुछ लोक तो वस्तुत: बहुत ही बढ़िया हैं और कालिदास के पद्यों की श्रेणी में रक्खे जा सकते हैं |
समय- (क) स्वयं भट्टि स हमें इस बात का पता लगता है उसने बक्षी के राजा श्रीधर सेन के श्राश्रय में रह कर अपना ग्रन्थ लिखा । किन्तु इस नाम के बार राजा हुए हैं । उनमें से अन्तिम राजा खगभग ६४१ ई० में मरा। चत: अट्टि को हम ६०० ई० के श्रास-पास रख सकते हैं । सम्बन्ध में निम्नलिखित बाह्य साक्ष्य भी कुछ उपयोग का हो सकता है ।
(ख) सम्भवतया सामह को मट्टि का पता था, क्योंकि भामद ने बगभग पूर्णतया मिलते जुलते शब्दों में भट्टि का निम्नलिखित श्लोक अपने ग्रंथ में उद्धृत किया है।
व्याख्यागम्यमिदं काव्यं उत्सवः सुधियामतम् । हृता दुर्मेधसास्मिन् विद्वत् प्रियतया मया ॥
(ग) दरिड और भामह के अलंकरों से मिला कर देखने पर भट्टि के अलंकार बहुत कुछ मौतिक प्रसव होते हैं।
१ निम्नलिखित पद्य को विक्रमोर्वशीय २, १६ से मिलाइये, रामोऽपि दाराहरणेन ततो, वयं इतै बन्धुभिरात्मतुल्यैः । तप्तेन तप्तस्य यथायो नः सन्धिः परेणास्तु विमुच सीताम
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