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ॐ मवि की शैली (४) भारवि की कुछ पंक्तियां इसमी हृदयम्पर्शिशी है कि वे लोकोकियां बन गई हैं। उदाहरणार्थ
हितं मनोहारि च दुर्लभ वच ॥
न हि प्रियं, प्रबक मिच्छन्ति मृषा हितषिणः॥ (4) इसकी उत्प्रेक्षाएं बड़ी सुस्थिर और व्यापक हैं ।
(६) संस्कृत के महाकाव्य-साहित्य में यह विशेषता देखी जाती है, कि ज्यों-ज्यों इसको आयु बढ़ती गई, त्यो त्यों यह अधिक बनाव-सिंगार से पूर्ण होता गया। भारवि भी शैलो-सम्बन्धिनी कृत्रिमता से मुक नहीं रह सका। इस कृत्रिमता की लस्कृत के अलङ्कार शास्त्री चाहे जितनी प्रशंसा करें परन्तु यह कविता के आधुनिक प्रमाणों ( Standards) के अनुरूप नहीं है। शायद इसका कारण यह है कि इस कृत्रिमता की खातिर खींचतान करनी पड़ती है और इस तरह स्वाभाविक प्रवाह का विवाद हो जाता है। पन्द्रहवें सर्ग में भारवि ने शब्दालङ्कारों के निर्माण में कमाल किया है। एक पद्य के चारों चरण एक हो चरण की पावृत्ति से बनाए गए हैं। एक ऐसा पद्य है जिनके तीन अर्थ निकलते हैं । एक पद्य ऐना है जिसे बाई पार से दाहिनी ओर को पढ़ा, चाहे दाहिनी
ओर से बाई ओर को पढ़ो, एक जैसा पढ़ा जाएगा। उदाहरणार्थ, निम्नलिखित पञ्च का निर्माण केवल 'न' से कियागया है, त्' एक बार केवल अन्त में भाया है
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न मोननुन्नी नुशोलो माना नानानना गनु ।
तुजोऽनुको ननुन्नेनो नानेनानुन्ननुन्ननुत् ।। (७) भारवि की शैली में लम्बे लम्बे समास नहीं है। सारे को मिला जुलाकर देखा जाए तो उसकी शैली में क्लिष्टता का दोष नहीं है।
(E) भारवि निपुण वैयाकरण था। पाणिनि के अप्रसिद्ध नियमों के उदाहरण देने में यह अपने पूर्वगामी कालिदास और पश्चिमगामी