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संस्कृत साहित्य का इतिहास
माघ दोषों से बढ़कर है। उदाहरणार्थ इसके भूत-कालवाची नियमित प्रयोगों को लीजिए। इसने लुक का प्रयोग निकट भूत कालीन घटनाओं के लिए और बङका वका के अपने अनुभव से सबन्ध रखने वाली चिर भूख कालीन घटनायो के लिए किया है। इस प्रकार परोक्ष भूतकास कथा-दान करने का भूतकाल रह गया । इसने इलवरह मिलाकर जुक का प्रयोग केवल इस स्थलों पर किसान मात्र में इस प्रयाग दो सौ बहत्तर स्थानों पर किया है।
() छन्द का प्रयोग करने में तो यह पूर्ण सिद्ध है। कभी-कभी इसने कठिन और अप्रयुक्त छन्द का भी प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, १३वे सई में अकेला उद्गाता छन्द है । इल बात को छोड़कर देख लो यह छन्दों के प्रयोग में बहुत ही विशुद्ध है और इसने छन्दों के विविध प्रकारी का प्रयोग पर्याप्त संख्या में किया है। केले पांचवें स्वर्ग में सोलह प्रकार के छन्द आए हैं। यह बात मान देने योग्य है कि ओ प्रसिद्ध नाटककार भवभूति का प्रिय छन्द है भारत ने उस शिखरिणी छन्द का प्रयोग बहुत ही कम किया है ।।
(३३. भाट्टि ( लगभग ६०० ई०) मष्टि भी महाकाव्य रयिता एक प्रसिद्ध कवि हैं। इसके काव्य का नाम 'रावणवध है जिस को साधारणतया भट्टिकाव्य कहते हैं । यह राम की कथा भी कहता है और व्याकरण के नियमों के उदाहरण भी उपस्थित करता है। इस प्रकार इससे 'एक पन्थ दो काज' सिद्ध होते हैं। भारतीय लेखक भष्टिकाव्य को महाकाव्य मानते हैं । इस काव्य में २२ सर्ग है जो चार भागों में विभक हुए हैं। प्रथम भाग में (सर्ग १-४) फुटकर नियमों के उदाहरण हैं । द्वितीयभाग में (सग ५-६) मुख्य-मुख्य नियमों के उदाहरण हैं और ततीय भाग में (सर्ग १७---१३) कुछ अजङ्कारों के उदाहरण हैं। तेरह वर्ग में ऐसे श्लोक हैं जिन्हें संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के कह सकते हैं। चतुर्थ