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ओष्य संस्कृत की विशेषताएँ
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है, जिस में कोई सारथि किसी वैयाकरण से 'सूत' शब्द की व्युत्पति पर विवाद करता है । लोकवार्ता है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर पर दुःख - कातर हो उससे संस्कृत में पूछा कि तुम्हें यह बोझ कष्ट तो नहीं पहुँचा रहा और 'बाधति' क्रिया-पद का प्रयोग किया । इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया- महाराज ! मुझे इस बोक से उतना कष्ट नहीं हो रहा, जितना 'बाधते' के स्थान पर, आपके बोले हुए 'माघति' पद से हो रहा है। सातवीं शताब्दी में, तो जैसा । ऊपर का जा चुका है, बौद्ध और जैन भी संस्कृत बोलने लगे थे । थाजकल भी बड़े-बड़े पंडित आपस में तथा विशेष करके शास्त्र- चर्चा में, संस्कत ही बोलते है । सक्षेप यह कि संस्कृत की प्रारंभ से लेकर अब तक प्रायः वही अवस्था रही है और अब भी है, जो यहूदियों में दिव् की या मध्य काल में लेंटिन की थी ।
[६] श्र ेय संस्कृत की विशेषताए
भारतीय साहित्य का इतिहास दो प्रधान कालों में विभक्त हो सकता है - - ( १ ) पाणिनि से पहला अर्थात् वैदिक काल जिसमें वेद, ब्राह्मण, श्रारण्यक उपनिषद् और सूत्रग्रन्थ सम्मिलित हैं, तथा ( २ ) पाणिनि से पिछला अर्थात् श्रेय संस्कृतकाल जिसमें रामायण, महाभारत, पुराण, महाकाव्य, नाटक, गीतिकाव्य, गद्याख्यायिका, लोक प्रिय कहानियाँ, श्रौपदेशिक कथाएँ, नीति-सूक्तियाँ तथा शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, राजनीति, ज्योतिष और गणित इत्यादि के ऊपर वैज्ञानिक साहित्य सम्मिलित है। दूसरे काल का साहित्य पहले काल के साहित्य से बाह्याकृति, श्रन्तरात्मा प्रतिपाय अर्थ एवं शैली इन सभी दृष्टियों से भिन्न है । इनमें से कुछ का दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है:
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(क) बाह्याकृति -- सम्पूर्ण ऋग्वेद की रचना पथ में हुई है। धीरे वी गद्य की शैली का विकास हुआ । यजुर्वेद और ब्राह्मणों में गद्य का अच्छ विकास देखने को मिलता है । उपनिषत् तक पहुँचते-पहुँचते गद्य क प्रभाव बहुत मन्द पड़ गया, क्योंकि उपनिषदों में गद्य का प्रयोग
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