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संस्कृत साहित्य का इतिहास ..
किया गया है।
areata franों के अनुसार भिन्न-भिन्न पात्र अपने सामाजिक पद के अनुसार भिन्न भिन्न भाषा बोलते हैं। इस नाटक में तीन प्रकार की प्रा पाई जाती हैं। 'दुष्ट' की माकृत मागधी से, 'गोवन' की माथी से और विदूषक की उक्त दोनो के मिश्र से मिलतो जुदती हैं।
शेष दो बौद्ध नाटकों के रचयिता के विषय में हम ठीक-ठीक कुछ नहीं जान सकते, क्योंकि ये खतिरूप में ही मिलते हैं; किन्तु हम उन्हें किसी और कृतिकार की कृति मानने की
अपेक्षा अश्वघोष को ही कृति मानने की घोर अधिक केंगे। इनमें से एक रूपकाख्यान के रूप में है और कृष्णमिश्ररचित प्रबोधचन्द्रोदय से मिलता जुलता है जिसमें कुछ भाववाचक संज्ञाओं को व्यक्तिवाचक संज्ञाएं मानकर पात्रों की कल्पना की गई है और वे संस्कृत बोलते हैं ।
(२८) अश्वघोष के महाकाव्य
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[ बुद्धपरित और सौन्दरानन्द ]
संस्कृत साहित्य के पुष्पोद्यान में अश्वघोष एक परम लोचनासेचनक कुसुम है। इसके इस यश के विस्तारक इसके अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा
बोलता है | इस बात से लूडर्स ने यह परिणाम निकला कि सस्कृत नाटक का अन्त्यां अभी निर्माणावस्था में था । किन्तु यह हेतु वस्तुतः हेत्वाभास है । लूडर्स के ध्यान मे यह बात नहीं आई, कि कवि भरतवाक्य में 'अतः परम्' शब्द रखकर नाटकीय नियमों का यथाशक्ति पूर्णपालन करने का यत्न कर रहा है। इसके अतिरिक्त, बाद की शताब्दियों में भी भरतवाक्य, नायक को छोड़; अन्य श्रद्धय व्यक्तियों द्वारा बोला गया है | उदाहरणार्थ, भट्टनारायणकृत वेणीसंहार में इसका वक्ता कृष्ण और दिङ नाग की कुन्दमाला में इसका बक्ता वाल्मीकि है ।