________________
प्रश्वधाष की नाट्य कला
१२५.
P
age
शिष्य था जिसने अपने स्माट शुद्धि- मात्र के बल से बौदधर्म में दीक्षित किया था। एक और जनति कहती है कि इसका भाषण इतना मधुर होता था कि धाई भी चरना छोड़कन इसका भाषण सुनने बगाडे थे।
(२७) अश्वघोष की नाट्य-कला ० लडाई को मन्यवाद ई जिलके प्रशनों से हम जानन्द है कि प्रश्वकोष ने कुछ नाटक लिखे थे। मध्य एशिया में ताडपमवाली हस्तलिखित पुस्तकों के हकों में से कोनीन दौर नाटक उपलब्ध हुए हैं उनमें शारिपुत्र प्रकरण (पूराना, शारदवती पुत्र प्रकरण ) भी है। यह नाटक निस्सन्देह अश्वनीष की कृति है। क्योंकि (1; अन्याम्स में सुवर्णाक्षी के पत्र अश्वघोष का नाम दिया है। (२) एक या ज्यों का त्यों बुद्धचरित में से लिया गया है और (३) लेखक ने श्ररने सूत्रालंकार में दो बार हल अन्य का नामोल्लेख किया है । इस नाटक से पता जगता है कि किस प्रकार बुद्ध ने तरुण मोदनात्यायन और शारिपुन को अपने धर्म का विश्वासी बनाया। कहानी बुद्धचरित में वर्णित कहानी से कुछ मिन्न है, क्योंकि ज्यों ही ये शिष्य बुद्ध के पास भाए प्यों हो उसने सीबी इनसे अपनी भविष्यवाणी करदी। मृच्छकरिक और मालसोमाधव के समान यह नाटक मी 'प्रकार है। इसमे नौ अंक हैं। इस नाटक में नाट्यशास्त्र में वर्णित नाटक के नियमों का यथाशक्य पूर्ण पालन किया गया है। नायक भारिपुत्र धीरोदात्त है । बुद्ध और उसके शिष्य संस्कृत बोलते हैं। दिदूध और अन्य हीनपात्र माकृत बोलते हैं। जो ऐसे नायक के साथ भी अश्वकोष ने विदूषक रक्ता इसले अनुमान होता है कि उसके समय से पूर्व ही संस्कृत नाटक का वद स्वरूप निश्चित हो चुका था जो हमें बाद के साहित्य में देखने को मिलता है। भरतवाक्य में 'श्रतः परम्' शब्दों का प्रमोम भी हहे कौशल से
कुछ एक विद्वानो का कथन है कि इस नाटक में 'श्रतः परमपि प्रियमस्ति? वाला प्रश्न नहीं पाया है और भरतवाक्य को नायक नहीं