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संस्कृत-साहित्य का इतिहास ?
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सर्गश्व प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चचक्षणम् ॥
यह श्लोक वस्तुत: आदिम पुराण का विषय बताता है जब कि धार्मिक सिद्धान्त, तीर्थमादात्म्य, अनेक शाखा-पत्र-युक्त धर्म जैसे अन्य अनेक विषय, पुराणों में सम्मिलित नहीं हो पाये थे ।
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श्राजकन पुराणों का स्वरूप ऐतिहासिक कम और श्रोपदेशिक अधिक है। उनमें उपाख्यान हैं, विष्णु के दश अवतारों के वर्णन हैं, तथा देवताओं की पूजा के और पर्वों के मनाने एवं व्रतों के रखने के विषय में नियम हैं । उनका प्रामाण्य वेदों के प्रामाण्य की स्पर्धा करता है
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१. अनुलोमसृष्टि, प्रतिलोमसृष्टि, ऋषिवशो, मन्वन्तरो और राजवंशों का वर्णन करना, यही पांच बातें पुराणो का लक्षण कही जाती हैं ।
सूचना --- यह बात ध्यान मे रक्खी जा सकती है कि सर्ग, प्रतिसर्ग और मन्वन्तर प्रायः कल्पना के श्राश्रित है। हॉ, अन्य दो बातें--- वंश और वंशानुचरित ऐतिहासिकता का वेष रखने के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण हैं ।
२. बाह्य रूप, भाषा और प्रतिपाद्य अर्थ की दृष्टि से पुराण, ऐतिहासिक महाकाव्य और कानून की पुस्तकें परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं' । केवल इक्के दुक्के श्लोक ही नहीं, प्रकरण शब्दशः ज्यो- के त्यों उनमें एक-से पाए जाते हैं । प्रतिपाद्य अर्थ की दृष्टि से उनके बीच कोई दृढ विभाजक रेखा नहीं खीची जा सकती । भिन्न-भिन्न दृष्टियों से महाभारत को हम ऐतिहासिक महाकाव्य, कानून की पुस्तक या पुराण भी कह सकते हैं ।
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पुराण भागशः । पाख्यानिक और भागशः ऐतिहासिक है। इस बारे में उनकी तुलना ईसाइयों के पुराण 'पैराडाइस लॉस्ट' से की जा सकती है ।