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चौथा अध्याय
(१२) संस्कृत साहित्य में भास का स्थान थोड़े समय पूर्व तक संस्कृतानुरागियों को मास के नाम के सिवा उसके विषय में और कुछ भी मालूम नहीं था। कालिदास ने अपने नाटक मालविकाग्निमित्र में उसका नाम सादर के साथ लिया है । कुछ अन्य संस्कृत-कृतिकारों ने भी उसका नाम लेकर उसे प्रतिष्ठित पद पर आरूढ़ किया है। राजशेखर कहता है :
भाली रामिनसोमिलौ वररुचिः श्रीसाहसाङ्कःकविर्मेण्ठो मार विकालिदासतरताः स्कन्धः सुदन्धुश्च यः, दण्डी बाणदिवाकरौ गणपतिः कान्तश्च रत्नाकरः, सिद्धा यस्य सरस्वती भगवती के तस्य सर्वेऽपि ते॥ प्रसन्नराघव की प्रस्तावना में कहा गया है :
यस्याश्चकोरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरी मयूरः, भालो हासः कविकुलगुरुः कालिदासो विलास. । हर्षी वर्षों हृदयवसति. पञ्चदाणस्तु बाणः,
केषां नैषा कथय कविता कामिनी कौतुकाय॥ सुभाषित-कोषों में बस्तुतः कुछ, बहुत ही बलित पद्य भास के .न.म से दिए हुए मिलते हैं। सुभाषितावली में से दो नीचे दिए जाते हैं: