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तब इनका रचयिता कौन है ? इन श्लोकों द्वारा यही सिद्ध होता है कि या तो राजशेखर को भूब लगी है या दो माल हुए हैं जिनमें से एक कालिदास से पूर्व हुमा और दूसरा कालिदाल के पश्चात् ।
ऐखा मानने पर कहा जावेगा कि स्वप्नवासवदत्त का रचयिता वह मास है जो कालिदास के पश्चात् हुआ! इस अर्थ-ग्रहण के अनुसार उक्त
लो में श्राए हुए धावक पद का अर्थ होगा धोषी' और मास का तात्पर्य होगा व्यक्ति विशेष । किन्तु ऐसा तभी माना जा सकता है जब इस भारतीय लोकवाद को, जो केवल लोक वाद ही नही है प्रत्युत जिसका समर्थन कई संस्कृत लेखक भी करते हैं, स्वीकार न करें कि धावक ने उपयुक्त तीन नाटकों (प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द ) की रचना की थी और पारितोषिक रूप में तत्कालीन शासक नृप श्रीहर्ष से विपुल धन प्राह किया था। उक्त श्लोकों का यथार्थ अर्थ लेने पर तो यह मानना पड़ता है कि धावक कषि का असली नाम है भास (प्रकाशमान, सुप्रथित, यशस्वी ) उसके विशेषण हैं। अतः राजशेखर ने जो लिखा है ठीक है।
यह भी कहा जाता है कि कई प्राचीन संस्कृत कवि जिसका उल्लेख करते हैं और राजशेखर ने जिसकी इस प्रकार प्रशंसा की हैं वह स्वप्नवासवदत्त नाटक भाजल का उपलभ्यमान स्वामवासवदत्त नाटक नहीं हो सकता। भास के नाम से प्रचलित इन तेरह नाटकों का रचयिता कोई अप्रसिद्ध दक्षिण भारतीय कवि है जो ७वीं शताब्दी में हुमा होगा। प्रो० सिलवेन खेवी ने रामचन्द्र गुणचन्द्र के माध्यदर्पण नामक ग्रन्थ में से एक पध प्रस्तुत किया है जो प्राजक के स्वप्नवासवदत्त में नहीं मिलता। पद्य नहीं मिलता यह ठीक है, किन्तु इस पद्य का भाव उपलभ्यमान
१. देखिये, “भण्डारकर इंस्टीच्यूट जर्नल' (१९२५-२६) में देवधर का लेख ।
२. बार्नेट भी इस विचार से सहमत है। ३. पदाक्रान्तानि पुष्पाणि सोमं चेदं शिलासनम् । नून काचिदिहासीना मा दृष्ट्वा सहसा गता।