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স্নান গাঙ্ক
हमी हसी में कहा कि मालमों का सुप्रसिद्ध इसाक दुष्यन्त तुके बदाएगा। राजा उस अवसर पर यहाँ प्रस्तुत था। उकसखियों से राजा को मालूम हुआ कि शकुन्तलावस्तुत: विश्वामित्र और मेनका की सुवा श्री! अतः वह उसके (राजा के) पाणिग्रहण के अयोग्य नहीं थी। इतने में राजा को तोषन में उपद्रव मचाने पर उतारू दिखाई देने वाले एक जगली हाथी को दूर हटाने के लिये वहां से जाना पड़ा, किन्तु उसके जाने से पहले ही उन दोनों के हृदयो में एक दूसरे के प्रति अनुराग का अंकर प्रस्फुटित हो चुका था (प्रथम अंक) राजा अपने प्रेमानुभवों का वर्णन विदूषक से करता है और प्राश्रम को राक्षसों के उपद्रवों से बचाने का भारी बोझ अपने ऊपर लेता है। इसी समय एक त्यौहार में शामिल होने के लिये राजा को राजधानो से बुलावा आ जाता है । वह स्वयं राजधानी न जा कर अपने स्थान पर विदूषक को भेज देता है, और उम्पये कदवा है कि शकुन्तला के प्रेम के बारे में मैंने तुझ से जो कुछ कहा था वह सब विनोद ही था उसे सच मान लेना (द्वितीय अक)।
शकुन्तला अस्वस्थ है और उसकी दोनों सखियों को उसके स्थास्म की बढी चिन्ता है। दुष्यन्त-विषयक उसका प्रेम बहुत घनिष्टको मम है। सखियों के कहने से वह एक प्रेम व्यजक पत्र लिखती है। दुष्यन्त, जो छिपकर उनकी बात सुन रहा था, प्रकट हो जाता है। शकुन्तला और राजा में देर तक वार्तालाप होता है। अन्त में तपस्विनी गौतमी का अक्षर प्रामा सुनकर राजा को वहाँ से हटना पडता है (तृतीय
क)। राजा अपनी राजधानी को लौट जाता है। वहाँ जाकर वह शकुन्तलाविषयक प्रेम को बिल्कुल भूज जाता है । एक दिन शकुन्तला राजा के प्रेम में बेसुध बैठी थी, कि क्रोधो ऋषि दुर्वासा वो श्रा पहुंचे। आत्मविम्मत शकुन्तला ने उनका यथोचित आतिथ्य न किया तो ऋषि ने उसे कठोर शाप दे दिया। सखियों ने दौड़ कर तमादान की प्रार्थना क' तो ऋषि ने शाप में परिवर्तन करते हुए कहा कि अच्छा, जब वह अपने पति की अभिज्ञान का चिह-रूप उस (पति) की अंगूठी