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और वैश्वती के किनारे बसी हुई विदिशा मगरी मिलेगी। फिर वहाँ से उज्जयिनी को जाना। वहां से कुरुक्षेत्र पहुँच कर पवित्र सरस्वती का मधुर अज पीना । उसले आगे कनखल आएगा, कनखल से कैलास और कैलास से मानस-सर । मानस-सर के मधुर शीतल जज से मार्ग परिशामित दूर करने के बाद तुम अलका पहुँचोगे । अलका ही उसका-अथवा "सच कहा जाए तो उसकी पत्नी का--निवास स्थान है। इसके बाद यह अपनी पत्नी के निवास का पूरा पता देता है जिससे उसे द ढ़ने में कठिनता न हो। तदनन्तर यच मेव से अम्यर्थना करता है कि तुम अपनी बिजली को जोर से न चमकने देना और अपनी जान को जरा धीमी कर देना; क्योंकि ऐसा न हो कि मेरी पत्नी कोई ऐसा स्वप्न देख रही हो जिस में वह मेरा ही ध्यान कर रही हो और वह चौंक कर जाग पड़े।। वह कहता है कि मेरी प्रिया मेरे वियोग में पायड और कृश हो गई होगी। जब वह स्वयं जाग जाए, तभी तुम उसे मेरे सच्चे प्रेम का सन्देश देना और उसे यह कहकर धैर्थ बँधाना कि शीघ्र ही हमारा पुनः संयोग अवश्य होगा।
इस काव्य की कथावस्तु का आधार वाल्मीकि की रामायण में ढा जा सकता है। उदाहणार्थः खोई हुई सीता के लिए राम का शोक वियुक्त यक्ष का अपनी पस्नी के लिये शोक करने का आदर्श उपस्थित करता है, और (१, २८ ) में आया हुश्रा वर्षा वर्णन भी कछ लमानता के अंशों को ओर ध्यान खींचता है। फिर भी कालिदास का वर्णन कालिदास का ही है और कथावस्त के बीज से उसने जो पादप उत्पन्न किया है वह भी अत्यन्त सरल है। कालिदास का प्रतिपाचार्थ निस्सन्देह मौलिकता-पूर्ण और उसका पाद-विन्यास विच्छित्तिशाली है। सारी कविता दो भागों में विभक्त है और कुल में ११०'
१ वल्लभदेव ( ११०० ई.) की टीका में १११, दक्षिणावर्तनाथ (१२०० ई० ) की में ११० और मल्लिनाथ (१४०० ई.) की में ११८ पद्य है।८ वी शताब्दी के जिनसेन को १२० पचों का पता था।