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संस्कृत साहित्य का इतिहास
और चरित्र-चिव को भुत शक्ति है। शेक्सपियर के समान उसके प्रत्येक पात्र में अपना स्वतः व्यक्तित्व है; उदाहणार्थ; श्रभिज्ञान शाकुन्तल में तीन ऋषि आते हैं—कराव, दुर्वासा और मारीच | केवल एक ही वाक्य दुर्वासा के क्रोधी स्वभाव का, या अन्य ऋषियों की भिन्न २ प्रकार को प्रकृति का चित्र खींच देता ह । एवं शकुन्तला की दो सखियों अनसूया और प्रियम्वदा में से अनसूया गम्भीर प्रकृति और प्रियम्वदा विनोदप्रिय है । करक के दोनों शिष्यों में व्यक्तित्व के लक्ष्य Trenष्ट हैं। कालिदास की भाषा भाव और पात्र के बिल्कुल अनुरू है: - गृह-पुरोहित अपने वार्त्तालाप में दार्शनिक सूत्रों का प्रयोग करता है और feat erate प्राकृत हो में बोलती है।
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कालिदास की अधिक प्रसिद्धि उपमात्रां' के लिये है जो योग्य, Hfree और मर्मस्पर्शिनी हैं। वे भिन्न र शास्त्रों में से संकलित 7 यहां तक कि व्याकरण और अलंकार शास्त्र को भी नहीं छोड़ा गया
| न केवल संकेत मात्र हो, अपितु श्रौपम्य पूर्णता को पहुंचाया गया है । वह स्वर्थ के समान उसका भी प्रकृति के साथ तादात्म्य है । उसका प्रकृति पर्यवेक्षण उत्कृष्ट कोटि का है; वह जद पर्वतों पवन और नदियों तक को अपनी बात सुना सकता है । उसके वृक्षों, पौधों, पशुओं एवं पक्षियों में भी मानव हृदय के भाव -- हर्ष, शोक, ध्यान और चिन्ता है। उसके इन विशिष्ट गुण का प्रतिक्रमण तो क्या कोई तुलना भी नहीं कर सकता ।
reer के अतिरिक्त उसने उत्प्रेक्षा, अर्थान्तर न्यास और यमकादि का भी प्रयोग पूर्ण सफलता से किया है। रघुवंश के नवम सर्ग में उसने देखिये, उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् । दण्डिनः पदलालित्य माघे सन्ति त्रयोगुणाः ॥
२ उसके शब्दालंकारो और अथालंकारो के प्रयोग में बहुत सुन्दर सम-तुलन है। अर्थ की बलि देकर शब्द का चमत्कार उत्पन्न करने की र उसकी अभिरुचि नहीं है ।