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कालिदामक विचार
(बच रन में वे विद्याभ्यास करते थे, युवावस्था में विषयोपभोग। बुढापे में ये मुनियों जैसा जीवन प्रतीत करते थे और अन्त में योगद्वारा शरीष त्यागते थे)
जीवन के चार फजो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में उस का पूर्ण विश्वास है। काम और अर्थ की प्राप्ति मोक्षगाप्ति के उद्देश्य से धर्म के अनुसार होनी चाहिये । यह सिद्धान्त उसने अपने माना अन्थो में भल्ली माँति व्यक्त किया है।---जच तक दुष्यन्त को यह निश्चय नहीं हो जाता कि शकुन्तला क्षत्रिय-कन्या है अतएव राजा से, चाही जाने के योग्य है.. तब तक यह उसके लिये इच्छा प्रकट नहीं करता। फिर, वह दरबार में शकुन्तला को ग्रहण करने से केवल इसलिये निषत्र कर देता है कि वह इसकी परिणीता पत्नी नहीं है।
प्रेम के विषय में कालिदास का मत है कि तपस्या से प्रेम निखरमा है। प्रेमियों की दी तपस्या सेम उज्ज्वल होकर स्थायी बन जाता है। उसके रूपकों में शकुन्तला एवं अन्य नायिकाएँ वोर लश सहन करने के बाद ही पतियों के साथ पुन: स्थिर संयोग प्राप्त कर सकी हैं। यही दशा दुष्यन्ताहि नायलो की भी है। तप पारस्परिक और समान रूप से उग्र है। उसके माध्यों में भी यही बात पाई जाती है । इस प्रसङ्ग में कुमारसम्भव के पञ्चम सर्म में पार्वती के प्रात शिद की उक्ति लोलो पाने ठीक है।
अब प्रमत्यवनसाङ्गि ! तवास्मि दासः
श्रीशस्तपोभिः ......... ..... । शिव की आकृष्ट करने वाला पार्वती का अलौकिक सौन्दर्य नही.
१ सस्कृत साहित्य के इतिहास में इंग्लिश (प०६७) कीथ कहता है-कालिदास 'उन्हें दिलीप के पुत्रों में मूने देखता है । कदाचित् दिलीप से कीथ का तात्पर्य दशरथ से है, क्योंकि दिलीप के तो केवल एक पुत्र-रघु था।