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कालिदास के नाटकों के सस्कर
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कवि
पृष्ठ ४२ पर कहना है कि इसके १७ से १३ तक के तीन दाल कृत नहीं हैं। यह ठीक है कि गुणों में ये लग म्यूम श्रेणी के हैं। इनमें न तो काव्यविषयिणी अन्तर्दृष्टि ही पाई जाती हैं, और न ही वह तीव्र भावोष्मा, जो कालिदास में पर्याप्त देखी जाती है, किन्तु इससे हम यह परिणाम नहीं निकाल सकते कि ये कालिदास कृत नहीं हैं। किसी अन्य विद्वान ने इन सर्गों के प्रक्षिप्त होने की शंका नहीं की । अधिक से अधिक हम यह कह सकते हैं कि इन सर्गों में कालिदास की उत्कृष्ट काव्य-शक्ति का चमत्कार देखने को नहीं मिलता ।
(ङ) अब कुमारसम्भव को लेते हैं । सवें से १७ वें तक के सगं निश्चयः ही बाद में जोड़े गए हैं। मल्लिनाथ की टीका केवल वें के अन्त तक मिलती है । श्रालंकारिकों ने भी पहले ही श्राठ' सर्गों में से उदाहरण दिए हैं। शैली, वाक्य विन्यास और कथा -निर्माण-कौशल के श्रभयन्तरिक प्रमाणों से भी अन्त के इन सर्गो का प्रसित होना एक दम सिद्ध होता है । इनमें कुछ ऐसे वाक्य खण्ड बार बार आए हैं जो कालिदास की शैली के विरुद्ध हैं । पूर्ति के लिए नूनम् खलु, सद्यः, अलम् इत्यादि व्यर्थ के शब्द भरे गए हैं । कई स्थलों पर प्रथम और तृतीय चरण के अन्त में यति का भी श्रभाव है। अव्ययीभाव समासों और कर्मणि प्रयोग आमनेपद में जिद के प्रयोगों का आधिक्य है । समास के अन्त में 'अन्त' ( यथा समासान्त) पद का प्रयोग लेखक को बढा प्यारा लगता है । इस 'अन्त' की तुलना मराठी के अधिकरण कारक की 'श्रांत' विभक्ति से की जा सकती है | इसी आधार पर जैकोबी का विचार है कि कदाचित् इन सर्मो का रचयिता कोई महाराष्ट्रीय होगा ।
(२२) नाटकों के नाना संस्करण
कालिदास के अधिक सर्व-प्रिय नाटकों के नाना संस्करणों का
१ इसके विपरीत हम देखते हैं कि आलंकारिकों ने रघुवंश के सन सगों में से उदाहरण दिए हैं।