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संस्कृत-साहित्य का इतिहास
स्वमवासवदास में अवश्य अाया हुआ है, इससे निषा नहीं हो सकता। इस विशेषी युक्ति द्वारा अधिक से अधिक यही सिद्ध हो सकता है कि स्वमवासवदत्त के नाना संस्करण हैं। इसके द्वारा वर्तमान स्वमवासवदत्त के असली होने का खण्डन कदापि नहीं हो सकता। ऐसा उदाहरण कालिदास का मालविकाग्निमित्र नाटक भी उपस्थित करता है। स्वसवासवदत्त के नाना संस्करण थे, इस बात का समर्थन नीमोजदेव के
गारप्रकाश के साक्ष्य से भी होता है, क्योंकि शृंगारप्रकाश का उद्धृत प्रकरण स्वमवासवदत्त के श्म अंक का सार है।
शारदा तनय ( १२वीं शतान्दी) के भाव प्रकाश में स्वसवासवदत्त से एक श्लोक' उद्धृत है और वह श्लोक आजकल के स्वामवासवदत्त में पाया जाता है। इससे भी सिद्ध होता है कि यही स्वशवासवदत्त भास का असली स्वमवासवदत्त है। इस सब का सार यही है कि इन सब तेरह नाटकों का रचयिता भास ही था।
(१५) भास के और ग्रन्थ सुभाषित-कोशों में भास के नाम से दिए हुए पद्म इन नाटको में नहीं मजते । श्रतः सम्भव है कि भास ने कुछ और भी नाटक लिखे हों और कदाचित् कुछ फुटकर कविता भी की हो ( जिसके संग्रह का नाम विष्णुधर्म हो) तथा प्रकारशास्त्र का भी कोई ग्रन्थ लिखा हो। मध्यकालीन संस्कृत साहित्य के प्राचार पर यही अनुमान होता है।
महाकवि मास का एक और नाटक 'यज्ञफलम् । अथवा यज्ञ नाटकम् ) राजवैद्य जीवराम कालिदास शास्त्री को मिला है। इस नाटक की कथा वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड से ली गई है और यह सम्बत् १६६७ में गोंडल ( काठियावाड़) से प्रकाशित हुआ है। इसकी दो हस्तलिखित प्रतियां देवनागरी अक्षरों में प्राप्त हुई हैं।
१. चिरप्रसुप्तः कामो मे वीण्या प्रतिबोधितः ।
ता तु देवीं न पश्यामि यस्या घोषवती प्रिया ।
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