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संस्कृत-साहित्य का इतिहास
की अपेक्षा सम्पादक अधिक थे। रामायण महाभारत से कहीं अधिक समरूप, कहीं अधिक समानावयवी और परिमार्जित, और चन्दों की नथा सामाजिक वातावरण की दृष्टि से कहीं अधिक परिष्कृत है।
(ग) मुख्य अन्यभाग-बोनों ग्रन्थों में से किसी में भी अविसन्दिग्ध भाग नहीं मिलता। दोनों प्रस्थों के नाना संस्करण मिलते हैं, जो एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं। उनके तुलनात्मक अध्ययन से हम किसी एक अविसन्दिग्ध प्रन्यभाग को नहीं रद निकाल सकते। महाभारत का दक्षिण भारत संस्करण उत्तरभारत संस्करण से किसी प्रकार बढ कर नहीं, प्रत्युत घट कर ही है। अतः यह अन्य की असलियत का पता लगादे में बहुत कम उपयोग का है। सच तो यह है कि इन काथ्यों का कोई भी अविसन्दिग्ध असली अन्धभाग नहीं है क्योंकि हिन्दुशों के ऐतिहासिक महाकाग्य का कोई निश्चित रूप था ही नहीं । सभी ऐतिहासिक कविताएँ प्रधम मौखिक रूप में एक से दूसरे को प्रास होती थी और भिन्न भिन्न पुनलेखक इच्छानुसार उनमें परिवर्तन और परिवर्धन कर देते थे । अतः असली अन्य के पुनर्निर्माण को श्राशा दुराशा है। हम अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि प्रत्येक सम्प्रदाय प्राम मन्थों में मोटे मोटे प्रक्षेपों को दे सकें।
(घ) उक्त महाकाव्यों का विकास-प्रत्येक के विकास के बारे में यह बात एकदम कही जा सकती है कि दोनों में से किसी का भी विकास दूसरे के बिना स्वतन्त्र रूप से नही हुशा। बाद वाली रामायणा का तात्पर्य वही है, जो महाभारत का है और बाद वाला महाभारत वाल्मीकि की रामायण को स्वीकार करता है।
(ङ) पारस्परिक सम्बन्ध-गृह्यसूत्रों के अन्तिम काल से पूर्व किसी भी एक महाकाव्य का स्वीकार किया जाना नहीं मिलता। गृह्यसूत्रों और दूसरे सूत्रमन्थों में जो ऐतिहासिक महाकाव्य सबसे पहले स्वीकार किया गया है, वह भारत है। दोनों महाकाव्यों का तुलनात्मक अध्ययन प्रकट करता है कि महाभारत में रामायण के कई उदरण