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महाकान्धों का अन्योन्य सम्बन्ध ४७ यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्वस्मिन् तथा वर्तितव्यं स धर्मः । मायाचारो मायथा बाधितव्यः साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः॥
( असली धर्म यही है कि जैसे के साथ तैसा बना नाय । कपटी को कपट से खत्म करो और सीधे के साथ सिधाई से बस्तो!)
सारे श्लोक को देखा जाय तो कहा जायगा कि इसकी भाग बाद के काव्यों से कहीं अधिक प्राञ्जल है।
(2.) दोनों ऐतिहासिक महाकाव्यों का प्रन्योन्य सम्बन्ध (क)परिमाण-वर्तमान महाभारत का परिमाण इलिया और ओडिसी के संयुक्त परिमाण का सात गुना है । रामायण का परिमाण महाभारत के परिमाण का चौथाई है। जैसा पर कहा जा चुका है। अाजकल का महाभारत पुराने महाभारत का समुश्वृहित रूप है। भैकडानल के मत से असली महाभारत में ८६०० श्लोक थे। चिन्तामणि विनायक वैद्य के मत से ८८०० कूटश्लोक थे और साधारण रजोक इनले अलग थे। इसे व्यास ने अपने शिष्य वैशम्पायन को पढ़ाया और उसने सनुप हित करके (२४००० श्लोकों तक पहुँचाकर ) सर्पसत्र के अवसर पर जन्मेजय को सुनाया। वैशम्पायन से प्रा6 अन्य को पुष्ट करके ( १ लाख श्लोकों तक पहुँचाकर ) सौति ने द्वादशवर्ष सत्र के अवसर पर शौनक को सुनाया । महाभारत के इन तीनों समुपयों का पता महाभारत के पथ से ही क्षगता है, जिसमें कहा गया है कि महाभारत के तीन प्रारम्भ हैं। ( देखिए पूर्वोक्त प्रघट्टक ६ का 'क' माग !) परन्तु रामायण को अपने ऐले समुपबृहण का पता नहीं है।
(ख) रचयितृत्व-रामायण एक ही कवि--वाल्मीकि की रचना है, जो ऐतिहासिक-काव्य की पुरानी शैली को जानता था और जो कविता नाम के अधिकारी, पाख्यान काग्य से भिन्न, अलंकृत काग्य का आदिम रचयिता था । परन्तु वर्तमान महाभारत कई रचयिताओं के श्रम का फल है। महाभारत के रचयिता ब्यास कहे जाते हैं । व्यास धारों वेदों को क्रमबद्ध करने वाले थे । ये हौपकिन के अनुसार रचियता