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सार.
समय- ॥२॥
प्रकारे कौतुक दिखावे है। परंतु मोहसु मिन्न अर जड पुद्गलसु भिन्न चैतन्यरूप आत्मा ज्ञाता है, सो आत्मा पुद्गलका नाटक जो नृत्य तिसका देखनहारा राजा है ॥ १३ ॥
॥ अव ज्ञान विलास कथन ॥ सर्वया ३१ साजैसे करवत एक काठ वीचि खंड करे, जैसे राजहंस निवारे दूध जलकों॥
तेसे भेदज्ञान निज भेदक शकति सेंति, भिन्न भिन्न करे चिदानंद पुदगलकों ॥ __ अवधिकों धावे मनपर्येकी अवस्था पावे, उमगिके आवे परमावधिक यलकों ।।
याही भांति पूरण सरूपको उदोत घरे, करे प्रतिबिंबित पदारय सकलकों ॥ १४॥ ॐ अर्थ जैसे करवत एक काठके बीचि दोय फाड करे वा, जैसे राजहंसपक्षी दुग्धजल एकठा होय । 5 ताकू निराला करे है। तैसे भेदज्ञान है सो अपने भेदक शक्तीसे, चिदानंद अर पुगलकू भिन्न भिन्न करे है।
फिरि यो भेदज्ञान है सो कर्मका क्षयोपशम करि अवधिज्ञानरूप होय मनःपर्यय अवस्थाको पाये है, ६ अर बधते वधते परमावधि सुधि पोहोचे । इसभांति यो भेदज्ञान वधते बघते ज्ञानका परिपूर्ण स्वरूप 4 ( केवलज्ञान ) के उदयकू घरे है, अर समस्त त्रैलोक्यवर्ति पदार्थनिकुं प्रतिषिवित करे है ॥ १४ ॥
॥ इति श्रीसमयसार नाटकको द्वितिय अजीवद्वार बालबोध सहित समाप्त भयो ॥२॥
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