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॥ अव अनुभवी जो भेदज्ञानी है तिसकी क्रिया कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ज्ञानी भेदज्ञानसों विलक्ष पुदगल कर्म, आतमीक धर्मसों निरालो करि मानतो ।। | ताको मूल कारण अशुद्ध राग भावताके, नासिवेकों शुद्ध अनुभौ अभ्यास ठानतो॥ ६ याही अनुक्रम पररूप भिन्न बंध त्यागि, आपमांहि आपनोखभाव गहि आनतो॥
साधि शिवचाल निरबंध होत तीहूं काल, केवल विलोक पाई लोकालोक जानतो॥ ५६ ॥
अर्थ-ज्ञानी है सो भेदज्ञानके प्रभावते पुद्गलकर्म• पररूप जाने हैं, आत्मीक धर्मसे जुदा करि माने है । अर पुद्गलीक कर्मबंधका मूल कारण जे अशुद्ध रागादिक भाव है, तिसका नाश करनेवू शुद्ध ||३|| आत्मानुभवका अभ्यास करे है।अर पूर्वे ५४ वे कवित्तमें कह्या तैसे अनुक्रमते शरीरादिक वा रागादिक परद्रव्यके संबंधळू त्यागे है अर अपनेमें अपने ज्ञान स्वभावकू ग्रहण करे है। ऐसे मोक्षमार्गका त्रिकाल साधन करि कर्मबंधका नाश करे है अर केवलज्ञान पाय लोकालोकळू जाननेवाला होय है ॥ ५६ ॥
॥ अव अनुभवी ( भेदज्ञानी) का पराक्रम अर वैभव कहै है ॥ सवैया ३१ सा॥जैसे कोउ मनुष्य अजान महाबलवान, खोदि मूल वृक्षको उखारे गहि वाहुसों ॥ तैसे मतिमान द्रव्यकर्म भावकर्म सागि, व्है रहे अतीत मति ज्ञानकी दशाहुसों। याहि क्रिया अनुसार मिटे मोह अंधकार, जगे जोति केवलं प्रधान सविताहसों। चुके न शकतीसों लुके न पुदगल माहि, धुके मोक्ष थलकों रुके न फिरि काहुसों॥ ५७॥
अर्थ-जैसे कोऊ मूढ मनुष्य महा बलवान होय सो, वृक्षके मूलळू खोदि अपने बाहुसे उखाड डारे है। है। तैसे अनुभवी भेदज्ञानी है सो ज्ञानदशातें, द्रव्यकर्मळू अर भावकर्मळू त्यागिके कर्मरहित होय रहे