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पण जो जीव वस्तुका स्वरूप पहिचाने है सोही प्रवीण है, अर जो नैगमादि नयते वचनके सर्व भेद माने है सोही शुद्ध है ॥ ४२ ॥
॥ अव छहों मतका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥वेदपाठी ब्रह्म माने निश्चय खरूप गहे, मीमांसक कर्म माने उदैमें रहत है ॥ बौद्धमति बुद्ध माने सूक्षम स्वभाव साधे, शिवमति शिवरूप कालको कहत है।
न्याय ग्रंथके पढैय्या थापे करतार रूप, उद्यम उदोरि उर आनंद लहत है ॥ __पांचो दरसनि तेतो पोषे एक एक अंग, जैनि जिनपंथि सरवंगि नै गहत है ॥४३॥
अर्थ-वेदपाठी जीवकू ब्रह्म माने है अर कर्म रहित निश्चय स्वरूपसे एक अद्वैत गुण ग्रहण करे है, मीमांसकमती जीवनूं कर्म माने है अर पूर्व कर्मके उदय माफिक प्रवर्ते है। बौद्धमती जीवकुं| बुद्ध माने है अर जीवके सूक्ष्म स्वभावकू साधे है, शिवमती जीवकू शिव माने है अर शिवकू कालरूप कहे है। नैयायिकमती जीवकू कर्ता माने है, अर क्रिया मग्न होय आनंद लहे है । ऐसे पांचूं | मतवाले एक एक अंग• पुष्टकर धारण करे है, अर जैनमती है ते सर्व नयनूं ग्रहण करे है ॥ ४३ ॥
॥ अव पांचूं मतके एक एक अंगकी अर जैनीके सर्वांगकी सत्यता दिखावे है ॥ ३१॥निहंचे अभेद अंग उदै गुणकी तरंग, उद्यमकि रीति लीये उद्धता शकति है। परयाय रूपको प्रमाण सूक्षम खभाव, कालकीसि ढाल परिणाम चक्र गति है। याहि भांती आतम दरवके अनेक अंग, एक माने एककों न माने सो कुमति है॥ एक डारिएकमें अनेक खोजे सो सुबुद्धि, खोजि जीवे वादि मरे साचि कहवति है।। ४४॥
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