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समय
अर्थ-क्रिया है सो अज्ञानभावरूप राक्षसकी नगरी है, तिस अज्ञान नगरीमें मोह राजा वसे है। सार. , अर किया है सो कर्मकी अर काय योगकी पडछाया है, तथा कपटकी जाल है जैसी साखर लगाई अ० १० ॥१०५॥
। छुरी है । इस क्रियारूप जालमें आत्मा मग्न हो रह्यो है, पण क्रियाके बादलसे ज्ञानरूप सूर्यकी में ॥ ज्योती छपी रहे है । श्रीकुंदकुंदाचार्य कहे है की क्रीया करे सो जीव व्यवहारी ( कर्मकर्ता ) कहावे, 5 है, निश्चय स्वरूपसे देखिये तो क्रिया सदा दुखदाई है ॥ ९६ ॥ ..
॥ अव ज्ञाताका विचार कहे है ॥ चौपई ॥ दोहा ।।- मृषा मोहकी परणंति फैली । ताते करम चेतना मैली ॥
ज्ञान होत हम समझे येती । जीव सदीव भिन्न परसेती॥ ९७ ॥ - जीव अनादि स्वरूप मम, कर्म रहित निरुपाधि ॥
अविनाशी अशरण सदा, सुखमय सिद्ध समाधि ॥ ९८॥ है अर्थ- हमारेमें पहले राग द्वेष अर मोहका उदय फैला था, ताते कर्मसहित चेतना मलीन हो ५ क रहीथी। अब ज्ञान चेतनाका उदय होनेंते हम ऐसे समझे है की, जीव है सो निश्चयसे पर संयोगते सदा भिन्न है ॥ ९७ ॥ अनादि कालते मेरा स्वरूप, कर्मकी उपाधि रहित है । सदा अविनाशी अर अशरण है, तथा सिद्ध समान सुखमय है ॥ ९८ ॥ चौपाई ॥मैं त्रिकाल करणीसों न्यारा । चिदविलास पद जगत उज्यारा ॥
॥१०५॥ राग विरोध मोह मम नाही । मेरो अवलंबन मुझमाही ॥ ९९॥ ___ अर्थ-मैं तीन कालमें कर्मसे न्यारा हूं। मेरा स्वरूप ज्ञानविलासमय है सो जगतमें उजाला है।
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