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मिथ्यामति अपनो स्वरूप न पिछाने ताते, डोले जग जालमें अनंत काल भरिके ॥ ३४॥ All अर्थ-संसारमें चाक समान फिरता फिरता जिसके संसारका अंत निकट आया है, अर मिथ्यात्वकं नाश करिके जिसने सम्यक्त पाया है। अर जिसने राग द्वेष छोडिके मन रूप सुभूमि साध लीनी ।। है, तथा विचार करिके अपने आत्मस्वरूप• पछानि मोक्ष पदके कारणरूप कीनी है । सोही सम्यक्ती || शुद्ध आत्मानुभवका अभ्यास करे है ताते तिसका कर्मरूप भ्रम रोग गलि जाय है, अर अविनाशी || मोक्षपद प्राप्त होय है । अर मिथ्यात्वी है सो आत्म स्वरूप पिछ्याने नहि है, ताते अनंतकाल वापर्यंत जगत जालमें डोले (जन्म मरण करते) फिरे है ॥ ३४ ॥
॥ अव जिसने आत्म स्वरूपका अनुभव पाया है तिसका विलास कहे है॥ सवैया ३१ सा ॥जे जीव दरवरूप तथा परयायरूप, दोउ नै प्रमाण वस्तु शुद्धता गहत है ॥ जे अशुद्ध भावनिके सागी भये सरवथा, विषैसों विमुख व्है विरागता वहत है। जेजे ग्राह्य भाव त्याज्य भाव दोउ भावनिकों, अनुभौ अभ्यास विषे एकता करत है।
तेई ज्ञान क्रियाके आराधक सहज मोक्ष, मारगके साधक अबाधक महत है॥३५॥ अर्थ-जे जीव-द्रव्यार्थिक नयते अर पर्यायार्थिक नयते वस्तु (आत्मा) का शुद्ध स्वरूप जाणे | है । अर जे अशुद्ध भाव ( राग अर द्वेष ) कू सर्वस्वी त्यागे है, अर जे पंचेंद्रीयके विषयसे परान्मुख होय वैराग्यतारूप प्रवर्ते है । अर ग्रहण करवे योग्य तथा त्यागवे योग्य इन दोनुं भावनिळू अनुभवके, अभ्यासमें पररूप जानि आत्मानुभवकी एकता करे है। तेही ज्ञानक्रिया (शुद्ध आत्मानुभव )के आराधक है, तोते स्वभावतेही मोक्षमार्गके साधक है तिनकू फेरि कर्मवाधा नहि होय ऐसे महिमावंत है ॥ ३५॥