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असंख्य प्रदेश संयुगत सत्ता परमाण, ज्ञानकी प्रभासों लोकालोकमान जुत है ॥ परजे तरंगनीके अंग छिन भंगुर है, चेतना शकति सों अखंडीत अचुत है ॥ सो है जीव जगत विनायक जगत सार, जाकि मौज महिमा अपार अदभुत है | ४७॥ अर्थ — निश्चय द्रव्यदृष्टीसे देखिये तो जीव एकरूप है, 'अर गुण परणतीके भेदभावसे 'देखियेतो जीव अनेक रूप है, प्रदेश प्रमाणसे देखियेतो जीवकी असंख्मात प्रदेश सत्ता है, अर ज्ञानके सत्तासे | देखियेतो जीव लोकालोक प्रमाण जाने है । पर्यायके विकल्पसे देखियेतो जीव क्षणक्षणमें पलटे है। ताते क्षणभंगुर है, अर चेतनाके शक्तीसे देखियेतो जीव अखंडित अविनाशी है । ऐसा जीव है सो जगतमें मुख्य सार वस्तु है, जिसकी मोज अर महिमा अद्भुत है अर अपार है ॥ ४७ ॥
विभाव शकति परणतिसों विकल दीसे, शुद्ध चेतना विचारते सहज संत है | करम संयोगसों कहावे गति जोनि वासि, निहचे स्वरूप सदा मुकत महंत है । ज्ञायक स्वभाव घरे लोकालोक परकासि, सत्ता परमाण सत्ता परकाशवंत है ॥ सो जीव जात जहांन कौतुक महान, जाकि कीरति कहान अनादि अनंत है ॥ ४८॥ अर्थ - राग द्वेषादिक विभाव शक्तीके परणतीसों देखियेतो जीव विकल दीसे है, अर केवल चेतना शक्तीसे विचार करियेतो जीव स्वाभाविकही शांत दीसे है । कर्मके संयोग से देखियेतो जीव चार गतिका अर चौ-यासी लक्ष योनिका निवासी कहावे है, अर निश्चय खरूपसे विचार करियेतो जीव सदा कर्मसे रहित मुक्तरूप महंत है । ज्ञायक स्वभावते विचार करियेतो यह जीव लोक अर अलोककूं देखन हारा है, अर सत्ताको विचार करियेतो जीवकी सत्ता प्रकाशवंत है । ऐसा जीव है सो जगतकूं