________________
समय
॥१३०॥
जो मैं आपा छांडि दीनो पररूप गहि लीनो, कीनो न वसेरो तहां जहां मेरा स्थल है ॥ भोगको भोग व्हें करमको करता भयो, हिरदे हमारे राग द्वेष मोह मल है ॥ ऐसे विपरीत चाल भई जो अतीत काल, सो तो मेरे क्रीयाकी ममता ताको फल हैं । ज्ञानदृष्टि भासी भयो कीयासों उदासी वह, मिथ्या मोह निद्रामें सुपनकोसो छल है ॥ २ ॥
अर्थ — जो मैं आतीत कालमें आत्म स्वरूप नहि जाना अर पर पुद्गलादिककूं अपना मानलिया, तथा आत्मा वसनेका जो अनुभव स्थान है, तहां वास कीया नही । पंचेंद्रियोंके विषयोंका भोक्ता होयके कर्मका कर्त्ता भयो, अर हमारे हृदयमें राग द्वेष अर मोहमल सदा हुतो । ऐसे अतीत काल में विपरीत कर्म कीये, तो मेरे कर्मके फल है । अब मेरेको ज्ञानदृष्टी प्रकाशी है ताते कर्मसे उदासी भयो है, अर पूर्व अवस्था ऐसी भासी मानूं वह मोहनिद्रामेंका स्वप्नकासा मिथ्या खेल हुवा ॥ २ ॥ अमृतचंद्र मुनिराजकृत, पूरण भयो गरंथ । समयसार नाटक प्रगट, पंचम गतिको पथ ॥३॥ अर्थ — अमृतचंद्र मुनीराजकृत, समयसार नाटक ग्रंथ परिपूर्ण हुवा । यह समयसार नाटक ग्रंथ है सो, पंचम गती (मोक्ष) का प्रसिद्ध मार्ग है ॥ ३ ॥
2.1
Rece
॥ इति श्रीअमृतचंद्राचार्यानुसार समयसार नाटक समाप्त ॥ 984660
6804495
**
सारअ० १२
॥१३०॥