Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit, Nana Ramchandra
Publisher: Banarsidas Pandit

View full book text
Previous | Next

Page 522
________________ | लेना, नटवेरूप शृंगार करना, स्त्रीके शय्याउपर सुखसे सोवना, कामरूप मन्मथ गीत सुतना, अती आहार सेवन करना; ए- नव प्रकार नहि करना सो शीलकी नव- वाडी जैनशास्त्रमें कही है ॥ ६६ ॥ ॥ अव आठवे नववे अर दशवे प्रतिमाका स्वरूप कहे है ॥ दोहा ॥ चौपाई ॥ - जो विवेक विधि आदरे, करे न पापारंभ । सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजै रणथंभ ॥६७॥ जो दशधा परिग्रहको त्यागी । सुख संतोष सहित वैरागी ॥ 'सम रस संचित किंचित ग्राही । सो श्रावक नौ प्रतिमा वाही ॥ ६८ ॥ | परकों पापारंभको, जो न देइ उपदेश । सो दशमी प्रतिमा सहित, श्रावक विगत कलेश ॥६९॥ 'अर्थ - जो सदा विवेक विचारसे सावधान रहे अर पाप आरंभ (कृषी, वाणिज्य अर सेवादिक ) करे नही । सो कुगतीके विजयका रणथंभ आठवे पापारंभ त्याग प्रतिमाका धनी है ॥ ८ ॥ ६७ ॥ जो द्रव्यादिक दश प्रकारके परिग्रहका त्याग करे अर सुख संतोषसे वैरागी रहे । तथा साम्य भाव धारण करके शरीर रक्षणार्थ किंचित् वस्त्र पात्र राखे सो नववी पाप परिग्रह त्याग प्रतिमाका धारण करणहारा | श्रावक है ॥ ९ ॥ ६८ ॥ जो पुत्रादिककों पापारंभ करनेका उपदेश देवे नही । सो दशवे पापोंपदेश त्याग प्रतिमाका श्रावक क्लेश ( पाप ) रहित है ॥ १० ॥ ६९ ॥ ( ॥ अब ग्यारवी प्रतिमा अर प्रतिमाके उत्तम मध्यम जघन्य भेद कहे है | चौपाई ॥ दोहा ॥--'जो स्वच्छंद वरते तजि डेरा । मठ मंडपमें करे वसेरा ॥ उचित आहार उदंड विहारी । सो एकादश प्रतिमा धारी ॥ ७० ॥ एकादश प्रतिमा दशा, कहीं देशत्रत मांहि । वही अनुक्रम मूलसों, गहीसु छूटे नांहि ॥ ७१ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548