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. ॥ अव केवलज्ञानीकी मुद्रा अर स्थिति कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥जो अडोल परजंक मुद्राधारी सरवथा, अथवा सु काउसर्ग मुद्रा थिर पाल है । क्षेत्र सपरस कर्म प्रकृतीके उदे आये, विना डग भरे अंतरिक्ष जाकी चाल है। जाकी थिति पूरव करोड आठ वर्षे घाटि, अंतर मुहूरत जघन्य जग जाल है ।।
सोहै देव अठारह दूषण रहित ताकों, बनारसि कहे मेरी बंदना त्रिकाल है ॥१०५॥ अर्थ केवलज्ञानीभगवान् अडोलपणे सर्व प्रकारे पर्यकमुद्रा (अर्धपद्मासन ) बैठे है अथवा 8|| कायोत्सर्गमुद्रा स्थीरपणे पाले है । अर नामकर्मके क्षेत्रस्पर्श प्रकृतीका उदय आवे तब केवलज्ञानी | विहार (गमन) करे है सो अन्य पुरुषके समान चाले नही, डग भरे विना अर अंतरिक्ष ( अधर ) गमन करे है । इस सयोगी गुणस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष न्यून पूर्वकोटी वर्षकी है, [ जन्मसे आठ वर्षकी उमरतक केवलज्ञान उपजे नही ] अर जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्तकीहै, केवलज्ञानी जगतमें । इतना काल रहते है फेर मुक्त होते है। ऐसे केवली भगवान् देवाधिदेव अठारा दूषण रहित है,8 बनारसीदास कहे है की तिनको मेरी त्रिकाल बंदना है ॥ १०५ ॥
'॥ अब केवली भगवानकू अारा दोष न होय तिनके नाम कहे है ॥ कुंडली छंद ।दूषण अठारह रहित, सो केवली संयोग । जनम मरण जाके नही, नहि निद्रा भय रोग । नहि निद्रा भय रोग, शोक विस्मय मोहमति ।
जरा खेद पर खेद, नांहि मद वैर विषै रति । चिंता नांहि सनेह नाहि, . जहां प्यास न भूख न । थिर समाधि सुख, रहित अठारह दूषण ॥ १०६ ॥