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___ अर्थ जे मुनी अठारह दूषण रहित है ते सयोग केवली कहिए। जिन्हळू जन्म नही, मरण नहीं, 2 निद्रा नही, भय नही, रोग नही, शोक नही, विस्मय नही, मोहमति नही, जरा नही, खेद नही, ॐ पसेव नही, मद नही, वैर नही, विषयप्रीति नही, चिंता नही, स्नेह नही, तृषा लागे नही, भूख लागे * नही, ऐसे अठारह दूषण रहित है ताते समाधि सुख सहित स्थिररूप होय है ॥ १०६ ॥
॥ अव केवलज्ञानीके परम औदारिक देहके अतिशय गुण कहे है ॥ कुंडली ॥ दोहा ।वानी जहां निरक्षरी, सप्त धातु मल नांहि । केश रोम नख नहि वढे, 'परम औदारिक मांहि, परम औदारिक माहि, जहां इंद्रिय विकार नसि। ., यथाख्यात चारित्र प्रधान, थिर शुकल ध्यान ससि ।लोकाऽलोक प्रकाश, ..
करन केवल रजधानी । सो तेरम गुणस्थान, जहां अतिशयमय वानी ॥ १०७ ॥ यह सयोग गुणथानकी, रचना कही अनूप । अव अयोग केवल दशा, कहूं यथारथरूप ॥१०॥ ६ -अर्थ-केवलज्ञानीकी वाणी मस्तकमेसे ॐकार ध्वनीरूप निरक्षरी निकले है, अर केवलीके परमहै औदारिक शरीरमें सप्त धातु नही तथा मल अर मूत्र होय नही । अर केश, नखकी वृद्धि होय नही, " अर जहां इंद्रियोंका विकार .( विषय ) क्षय हूवा है । अर उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र प्रगट भया है, 7 तथा जहां शुक्ल ध्यानरूप चंद्रमा.स्थिररूप हुवा है । अर जहां लोकालोकका प्रकाश करनहारी 5 केवलज्ञानरूप राजधानी विराजमान रही है । सो तेरवा सयोग गुणस्थान कहिए, तहां अतिशययुक्त * वानी है ॥ १०७ ॥ ऐसे तेरवे सयोग गुणस्थानका अनुपम्य वर्णन कह्या सो समाप्त भया ॥ १३ ॥
टीप:-केवलीकू मन वचन अर कायके योग है ताते इनकू सयोग केवली कहिए.'
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॥१४७॥