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अर्थ-स्थविर कल्पि अर जिनकल्पी ऐसे दोय प्रकारके मुनी है, ते दोहूं नग्न अर वनमें रहें है। 5/दोऊंहूं अठावीस मूलगुण पाले है, तथा दोऊहूं सर्व परिग्रहका त्यागी होय वैराग्यता धरे है। परंतु
जे स्थविर कल्पी.मुनि है ते शिष्य शाखा संगमे रखकर, सभामें बैठिके धर्मोपदेश करे है । अर जे जिनकल्पी मुनी है ते शिष्पशाखा छोडि निर्भय सहज एकटे फिरे है अर महातपश्चरण करे है, तथा कर्मके उदयते आये घोर २२ परीसह सहन करे है ॥ ८३ ॥
॥ अब वेदनी कर्मके उदैते ग्यारा परीसह आवे है सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥'-ग्रीषममें धूपथितं सीतमें अकंप चित्त, भूख धरे धीर प्यासे नीर न चहत है । डंस मसकादिसों न डरे भूमि सैन करे, वध बंध विथामें अडोल व्है रहत है। चयों दुख भरे तिण फाससों न थरहरे, मल दुरगंधकी गिलानि न गहत है। रोगनिको करें न इलाज ऐसो मुनिराज, वेदनीके उदै ये परिसह सहत है ॥४॥
5-A-RESEASE
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अर्थ-उष्ण कालमें धूपमें खडे रहे, शीत कालमें शीत सहे डरे नही, भूख लगेतो धीर धरे, तृषा लगे तो जल चाहे नही, डांस मच्छरादिक काटे तो भय नहि करे, भूमी उपर सयन करे, वध बंधादिकमें अडोल स्थीर रहे है, चलनेका दुःख सहे, चलनेमें तृण कंटकसे डरे नही, शरीर उपरके मलकी ग्लानी करे नहि, रोगकू विलाज नहि करे, ऐसे ग्यारह परिसह वेदनीय कर्मके उदयते आवे है सो मुनिराज सहन करे है ॥ ८४॥ ..
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