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समय
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निजरूप आतम शक्ति, पर रूप पर वस्त । जिन्ह लखिलीनो पेच यह, तिन्ह लखि लियो समस्त ४५ अर्थ — आत्माकी ज्ञानशक्ती ऐसी है की सो' आपने कोहूं जाने अर पर देहादिककहूं जाने है, ता | ज्ञान अर ज्ञेय ये वचन भेद है ते भारी भ्रम उपजावे है पण वस्तु एक है । ज्ञेयकी दशा दो प्रकारकी कही, एक निज (आत्म) रूप अर एक पररूप ॥ ४४ ॥ निजरूप आत्मशक्ती है और सब पर वस्तु है | जिसने यह पेच जानलीया तिसने समस्त तत्त्व जान लीया ॥ ४५ ॥
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॥ अव स्याद्वादते जीवका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ -
करम अवस्थामें अशुद्ध सों विलोकियत, करम कलंकसों रहित शुद्ध अंग है ॥ भै नै प्रमाण समकाल शुद्धा शुद्धरूप, ऐसो परयाय धारी जीव नाना रंग है ॥ एकही समै त्रिधा रूप पैं तथापि याकि, अखंडित चेतना शकति सरवंग है ॥
स्यादवाद याको भेद स्यादवादी जाने, मूरख न माने जाको हियो हग भंग है ॥ ४६ ॥ अर्थ — यह जीवकूं कार्माण देह अवस्थासे देखियेतो अशुद्ध दीखे है, अर कार्माण देहकूं छोडि केवल जीवकूं देखियेतो शुद्ध अंग दीखे है । अर येक कालमें इन दोनूं अवस्थासे देखियेतो शुद्ध तथा अशुद्धरूप दीखे है, ऐसे देहधारी जीवकी नाना प्रकार अवस्था है । एकही समय में जीव त्रिधा रूप ( अशुद्धरूप, शुद्धरूप, शुद्ध अशुद्धरूप, ) दीखे हैं, पण तीनौ अवस्थामें जीवकी चेतनाशक्ति अखंडित सर्व अंग भरी रही है । यही स्याद्वाद है इसका स्वरूप जे स्याद्वादी ज्ञाता होय तेही जाणे है, अर जिसका हृदय सम्यग्दर्शन रहित है सो अज्ञानी स्याद्वाद के स्वरूपकं नहि जाणे है ॥ ४६ ॥ निचे दुख दृष्टि दीजे तव एक रूप, गुण परयाय भेद भावसों बहुत है ॥
सार
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