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कल्पवृक्ष, अमृत, चंद्र, ये छह रत्न स्थिर है ताते ग्रहण करने योग्य है ॥ ३१॥ इस प्रकार सार. समय
* कर्मादिकके जे भाव है ते विष है तिस भावकू जो वमन करे है अर आत्म स्वरूपके जे चिद्विवेक-है अ० १२ ॥१२५॥ चिद्रप (ज्ञान अर ज्ञायक ) भाव है तिसमें जो रमे है । सोही मोक्ष मार्गका साधक है ॥ ३२॥
___टीप:-सात भाव व्यसन अर चौदा भाव रत्न कहे सो विचार पं० बनारसीदासकृत है.. . .
॥ अव मोक्षपदका साधक जो ज्ञानदृष्टी है तिनकी व्यवस्था कहे है ॥ कवित्त ॥. ज्ञानदृष्टि जिन्हके घट अंतर, निरखे द्रव्य सुगुण परजाय ॥
जिन्हके सहज रूप दिनदिन प्रति, स्यादाद साधन अधिकाय॥ जे केवली. प्रणित मारग मुख, चित्त चरण राखे ठहराय ॥
ते प्रवीण करि क्षीण मोह मल, अविचल होहि परम पद पाय॥ ३३ ॥ अर्थ-जो ज्ञान दृष्टीते अपने चित्तमें द्रव्यके गुण• अर पर्यायकू अवलोकन करे है। अर 8 स्वमेव दिनदिन प्रति स्याद्वादके साधनते द्रव्यका स्वरूप अधिक अधिक जाने है । अर जो केवली
प्रणित (उपदेश्या धर्म) मार्ग है तिसकी श्रद्धा करके तिस मुजब आचरण करे है। सो प्रवीण मनुष्य। - मोह कर्मरूप मलका नाश करि मोक्षपद पाय अविचल होय है ॥ ३३ ॥
॥अव मोक्षपदका क्रम अरं मिथ्यात्वीकी व्यवस्था कहे है ॥ सवैया ३१ सा॥चाकसो फिरत जाको संसार निकट आयो, पायो जिन्हे सम्यक् मिथ्याल नाश करिके ॥ ॥१२५॥ निरबंद मनसा सुभूमि साधि लीनि जिन्हे, कीनि मोक्ष कारण अवस्था ध्यान धरिके॥ 5 सोहि शुद्ध अनुभौ अभ्यासी अविनासी भयो, गयो ताको करम भरम रोग गरिक ॥
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