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समय
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है करना सो द्रव्य व्यसन है ते दुराचरणका घर है । अर मनमें मोह परिणामका वृथा चितवन करते में रहना सो भाव व्यसन है ॥ २६ ॥ . . . . . । . . . ॥ अब सात भाव व्यसनके स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥
अशुभमें हारि शुभ जीति यहै द्युत कर्म, देहकी मगन ताई यहै मांस भखिवो॥ मोहकी गहलसों अजान यह सुरा पान, कुमतीकी रीत गणिकाको रस चखिवो॥ निर्दय व्है प्राण घात करवो यहै सिकार, पर नारी संग पर बुद्धिको परखिवो ॥
प्यारसों पराई सोंज गहीवेकी चाह चोरी, एई सातों व्यसन विडारे ब्रह्म लखियो॥२७॥ है अर्थ-अशुभ कर्मके उदयकू हारि अर शुभ कर्मके उदयंकू जीत मानना सो भाव द्युत कर्म है, .
देह ऊपर मग्न रहना सो भाव मांस भक्षण है। मोहसे मूर्छित होके व तथा परका अजाणपणा । ॐ सो भाव मदिरा प्राशन है, कुबुद्धीका विचार करना सो भाव वेश्यासंग है । निर्दय परिणाम राखना है ६ सो भाव सिकार है, देहमें आत्मपणाकी बुद्धी माननी सो भाव परस्त्री संग है। धन संपदादिकमें प्रीति है रखके अति. मिलनेकी इच्छा करना सो भाव चोरी है, ऐसे भाव सात व्यसन है सो छोड़नेसे ब्रह्म (आत्मा-) का स्वरूप देख्याजाय है ॥ २७ ॥ . . . . !
।.. . ॥ अव मोक्षके साधकका पुरुषार्थ कहे है ॥ दोहा ॥- .. ॐ व्यसन भाव जामें नही; पौरुष अगम अपार । किये प्रगट घट सिंधुमें, चौदह रत्न उदार ॥२८॥
___ अर्थ-जिसके चित्तमें सातों भाव व्यसन नही अर अगम्य अपार पुरुषार्थ [ अनुभव ] करे है। ६ सो मोक्षका साधक अपने चित्तरूप समुद्र मथन करिके चौदह अमोल्य भाव रत्न प्रगट करे है ॥२८॥
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