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शुचिमें गिलानि वसे प्रापतीमें हानि वसे, जैमें हारि सुंदर दशामें छबि छीनता॥
रोग वसे भोगमें संयोगमें वियोग वसे, गुणमें गरव वसे सेवा मांहि दीनता॥ ___ और जगरीत जेति गर्भित असता तेति, साताकी सहेलि है अकेलि उदासीनता॥९॥ __ अर्थ—हे चेतन ? हांसीमें सुख मानोहो पण इसमें विषादका भय वसे है अर विद्यामें सुख मानोहो पण इसमें विवादका भय वसे है, देहमें सुख मानोहो पण इसमें मरणका भय वसे है अर बडाई पणामें सुख मानोहो पण इसमें हीनताका भय वसे है । शरीर शुची करनेमें सुख मानोहो पण 5/ इसमें ग्लानिका भय वसे है अर प्राप्तिमें सुख मानोहो पण इसमें हानीका भय वसे है, जयमें सुख मानोहो पण इसमें हारीका भय वसे है अर यौवनपणामें सुख मानोहो पण यामें वृद्धपणाका भय वसे है। भोगमें सुख मानोहो पण इसमें रोगका भय वसे है अर इष्टके संयोगमें सुख मानेहो पण इसमें वियोगका भय वसे है, गुणमें सुख मानोहो पण यामें गर्वका भय वसे है अर सेवामें सुख मानोहो पण इसमें दीनताका भय वसे है । और जगतमें जितने कार्य सुखके दीसे है तिन सबके गर्भित दुखहूं| भरा है, ताते सुखका ठिकाणा एक उदासीनता ( समरस भाव ) ही है ॥ ९ ॥ दोहा ॥जोउत्तंग चढि फिर पतन, नहि उत्तंग वह कूप । जो सुख अंतर भय वसे, सो सुख है दुखरूप ॥१०॥ जो विलसे सुख संपदा; गये तहां दुख होय ।जो धरती बहु तृणवती, जरे अमिसे सोय ॥ ११ ॥ शब्दमाहि सुद्गुरु कहे, प्रगटरूप निजधर्म । सुनत विचक्षण श्रद्दहे, मूढ न जाने मर्म ॥ १२ ॥
अर्थ-जो उंच स्थान चढि फिर पडना होयतो, ते उंच स्थान नही, कूप समान नीच है । तैसे जिस सुखके गर्मित भय वसे है, ते सुख नही, दुखही है ॥ १० ॥ कुटुंबादिक संपदा कोईकाल पण
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