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समय
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ये नवरस येई नव नाटक, जो जहां मम सोही तिहि लायक ॥ ४ ॥
अर्थ - - प्रथम श्रृंगार रस है अर दूजो वीर रस है, तीजी करुणा रस है सो करुणा रस समस्त जीवकूं सुखदायक है । चौथा हास्य रस अर पांचवा रौद्र रस है, छट्ठा बीभत्स रस है सो चित्तकं अप्रिय लगे । सातवा भय रस अर आठवा अद्भुत रस है, नवमा शांत रस है सो सब रसका नायक है । ऐसे नव रस है- ते नाटकरूप है, जो प्राणी जिस रसमें मग्न होय सोही रस प्रीय लागे है ॥ ४ ॥ ॥ अव नव भव रसके स्थानक कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥
शोभा शृंगार वसे वीर पुरुषारथमें, कोमल हिये में करुणा रस वखानिये ॥ आनंदमें हास्य रुंड मुंडमें विराजे रुद्र, बीभत्स तहां जहां गिलानि मन आनिये !! चिंतामें भयानक अथाहतामें अदभूत, मायाकी अरुचि तामें शांत रस मानिये ॥ येई नव रस भवरूप येई भावरूप, इनिको विलक्षण सुदृष्टि जगे जानिये ॥ ५॥ अर्थ - शोभा शृंगार रस रहे अर पुरुषार्थ में वीर रस रहें, कोमल हृदयमें करुणा रस रहे ऐसे कह्या है | आनंदमें हास्य रस रहे अर रणसंग्राममें रुद्र रस रहे, मनकूं घाण उपजे तिसमें बीभत्स रस रहे । चिंतामें भय रस है अर आश्चर्यमें अद्भुत रस रहे, वैराग्यमें शांत रस रहे है सो प्रमाण है । ये नव रस है ते भव (संसार) रूप पण है अर येई नव रस भाव (ज्ञान) रूप पण है, भव रसका |अर भाव रसका लक्षण जे है ते तो जगतमें सुदृष्टीसे जाने जाय है ॥ ५॥
॥ अव नव भाव रसके स्थानक कहे है | छपै छंद ॥
गुण विचार शृंगार, वीर उद्यम उदार रुख । करुणा रस सम रीति, हास्य
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सार
अ० १०
।।१११॥