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समय
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॥ अव ज्ञानका कारण ज्ञेय है इस प्रथम नयका स्वरूप कहे है । सवैया ३१ सा ॥को मूढ कहे जैसे प्रथम सवारि भीति, पीछे ताके उपरि सुचित्र आछ्यों लेखिये || तैसे मूल कारण प्रगट घट पट जैसो, तैसो तहां ज्ञानरूप कारिज विसेखिये ॥ ज्ञानी कहे जैसी वस्तु तैसाही स्वभाव ताको, ताते ज्ञान ज्ञेय भिन्न भिन्न पद पेखिये ॥ कारण कारिज दोउ एकही में निश्चय पै, तेरो मत साचो व्यवहार दृष्टि देखिये ॥ १३ ॥
अर्थ — कोई ( मीमांसक ) एक नयका ग्राही अज्ञानी कहे कि प्रथम भीतकं सुधारिये, पीछे तिस भीत उपर आच्छा चित्र निकले अर खराब भीत उपर खराब चित्र निकले । तैसे ज्ञान उपजनेका मूल कारण ज्ञेय (घटपटादिक वस्तु ) है, जैसे जैसे पदार्थ ज्ञानके सन्मुख होय तैसे तैसे ज्ञान जाननेका कार्य करे है । तिस एकांतीकूं स्याद्वादी ज्ञानी कहे जैसी वस्तु होय तिसका तैसाही स्वभाव होय है, ज्ञानका स्वभाव जाननेका है अर ज्ञेयका स्वभाव अज्ञान जड है ताते ज्ञान अर ज्ञेय भिन्न भिन्न पद | जानना । निश्चय नयते कारण अर कार्य ये दोउ एकमें है, पण व्यवहार नयते देखिये तो कारण विना | कार्य होय नही ताते तेरा मत ( अभिप्राय ) साचा है ॥ १३ ॥
॥ अव आत्मा त्रैलोक्यमय है इस द्वितीय नयका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा ॥ कोउ मिथ्यामति लोकालोक व्यापि ज्ञान मानि, समझे त्रिलोक पिंड आतम दरव है ॥ याहीते खछंद भयो डोले मुखहू न बोले, कहे या जगतमें हमारोहि परव है ॥ तासों ज्ञाता कहे जीव जगतसों भिन्न है पैं, जगसों विकाशी तोही याहीते गरव है ॥ जो वस्तु सो वस्तु पररूपसों निराली सदा, निहचे प्रमाण स्यादवादमें सरव है ॥ १४ ॥
सार
अ० ११
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