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समय
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जो पूर्वकृत कर्मफल, रुचिसे भुंजे नांहि । मगन रहे आठो पहर, शुद्धातम पद मांहि ॥ १०३॥ 'सो बुध कर्मदशा रहित, पावे मोक्ष तुरंत । भुंजे परम समाधि सुख, आगम काल अनंत ॥१०४॥ अर्थ- जो पूर्वकृत कर्मका फल ( भोग अर उपभोग ) रुचिसे भोगे नही । अर आठो प्रहर शुद्ध आत्मानुभवमें रहे है ॥ १०३ ॥ सोही पंडित कर्मबंध रहित होय त्वरित मोक्ष पावे है । अर तिस मोक्षमें आगामि अनंतकालपर्यंत परम समाधिका सुख भोगवे है ॥ १०४ ॥ ॥ अव ज्ञानीकी क्रमे क्रमे महिमा बधे सो कहे है ॥ छप्पै छंद ॥ -
जो पूरव कृतकर्म, विरख विष फल नहि भुंजे । जोग जुगति कारिज करंत, ममता न प्रयुंजे । राग विरोध निरोधि, संग विकलप सब छंडे । शुद्धातम अनुभ अभ्यास, शिव नाटक मंडे । जो ज्ञानवंत इह मग चलत, पूरण व्है केवल लहे । सो परम अतींद्रिय सुखविर्षे, मगन रूप संतत रहे ॥ १०५ ॥ अर्थ - जो विष वृक्षरूप पूर्वं कृतकर्मके फल ( भोगोपभोग ) रुचिसे नहि भोगे है । अर मन वचन तथा काय योगके युक्तिरूप कार्य करे पण तिस कार्यमें ममता घरे नही । राग अर द्वेषका निरोधि करि मनवचनकायके सब विकल्प छोडे हैं । अर शुद्ध आत्म अनुभवका अभ्यासरूप मोक्षका खेल करे है । इस मार्ग से जो ज्ञानवंत चले है सो परमात्मारूप होयके केवल ज्ञान पावे है । अर जन्ममरणते रहित होय मोक्षकूं' जाय है तहां अतींद्रिय सुखमें सतत मन रहे है ॥ १०५ ॥
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॥ अव शुद्ध आत्म. द्रव्यका स्वरूप वर्णन करे है ॥ सवैया ३१ सा ॥निरभै निराकुल निगम वेद निरभेद, जाके परकाशमें जगत माइयतु है ॥
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सार
अ० १०
।।१०६ ।।