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॥ अव ज्ञानका अर कर्मका भिन्न भिन्न प्रभाव कहे है। चौपई ॥जबलग ज्ञान चेतना भारी । तबलग जीव विकल संसारी॥ जब घट ज्ञान चेतना जागी। तब समकिती सहज वैरागी ॥ ८७॥ सिद्ध समान रूप निज जाने । पर संयोग भाव परमाने ॥
शुद्धातमःअनुभौ अभ्यासे । त्रिविधि कर्मकी ममता नासे ॥ ८८॥ | अर्थ जबतक ज्ञान चेतना कर्मरूप जड हुई है, तबतक संसारीजीव अज्ञानरूप है । अर || जब हृदयमें ज्ञान चेतना जाग्रत होय है, तब सहज वैराग्य प्राप्त होय सम्यक्ती कहावे है ॥ ८७.nl ज्ञानी है सो अपने आत्माकू सिद्ध समान कर्म रहित समझे है, अर पुद्गल संयोगसेजे राग तथा द्वेष भाव उपजे है ते पररूप माने है । अर शुद्ध आत्मानुभवका अभ्यास करे है, ताते द्रव्यकर्म भावकर्म अर नोकर्मका नाश होय है ॥ ८८ ॥ | । ॥ अव ज्ञाता कृतकर्मकी आलोचना करे सो कहे है ॥ दोहा ॥ सवैया ३१ सा ॥ज्ञानवंत अपनी कथा, कहे आपसों आप । मैं मिथ्यात दशाविषं, कीने बहुविध पाप ॥९॥
अर्थ-ज्ञानी अपनी कथा आपसो कहेकी । मै पूर्वी अज्ञानपणामें बहुत प्रकारके पाप कीये है॥८॥ हिरदे हमारे महा मोहकी विकलताइ. ताते हम करुणा न कीनी जीव घातकी ॥ . आप पाप कीने औरनिकों उपदेश दीने, हूति अनुमोदना हमारे याही वातकी ॥ मन वच कायामें मगन व्है, कमाये कर्म, धाये भ्रम जालमें कहाये हम पातकी ॥ ज्ञानके उदयते हमारी दशा ऐसी भई, जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ ९ ॥
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